Lok Sabha Election 2019 : खजाने पर भारी पड़ेगा कांग्रेस का 5 करोड़ परिवारों को सालाना 72 हजार देने का वादा
Lok Sabha Election 2019 में कांग्रेस ने जो वादे अपने घोषणा पत्र में किए हैं वे देश के खजाने पर कितना बोझ डालेंगे। आइये करते हैं इसकी पड़ताल...
नई दिल्ली, जेएनएन। Lok Sabha Election 2019 के लिए कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जो बड़े वादे तो किए हैं, उन्हें पूरा करने में देश के खजाने पर कितना बोझ पड़ेगा इसे लेकर सवाल उठ रहे हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या केंद्र और राज्य का खजाना इस पर आने वाले खर्च का भार वहन करने में सक्षम है। कई राज्य सरकारों का कर्मचारियों की सेलरी पर व्यय फिलहाल वित्त आयोग की सुझायी गयी सीमा से अधिक है। ऐसे में विशेषज्ञों का मानना है कि नयी सरकारी नौकरियों पर व्यय से केंद्र और राज्यों के खजाने पर अतिरिक्त भार पड़ेगा।
कांग्रेस पार्टी ने लोक सभा चुनाव 2019 के लिए अपने घोषणापत्र में ऐलान किया है कि पार्टी के सत्ता में आने पर मार्च 2020 से पहले केंद्र सरकार, केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम, न्यायपालिका और संसद में खाली पड़े चार लाख पदों को भर दिया जाएगा। साथ ही राज्यों को भी शिक्षा और स्वास्थ्य व स्थानीय निकायों में 20 लाख पदों को भरने का आग्रह किया जाएगा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इन नौकरियों को भरने पर केंद्र और राज्यों के खजाने पर सालाना लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये तक का अतिरिक्त भार पड़ सकता है।
वरिष्ठ अर्थशास्त्री राधिका पांडेय के अनुसार इससे राजकोषीय मोर्चे पर चुनौतियां पैदा होंगी। राज्यों की वित्तीय स्थिति पर आरबीआइ की रिपोर्ट बताती है कि राज्य सरकारों की देनदारियों में एक बड़ा हिस्सा सेलरी पर है। राज्यों ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया है जिसका भार वित्त वर्ष 2019-20 और 2020-21 तक पड़ने का अनुमान है। ऐसी स्थिति में नयी नौकरियों पर अतिरिक्त राजस्व व्यय से राजकोषीय चुनौती उत्पन्न होगी जिससे राज्य अपने राजकोषीय मार्ग से विचलित हो सकते हैं। राज्य इसे पूरा कर पाने में सक्षम होंगे यह बड़ा सवाल है।
आरबीआइ हर साल राज्यों के बजट का अध्ययन करने के बाद एक रिपोर्ट प्रकाशित करता है। वित्त वर्ष 2018-19 में वेज और सेलरी पर राज्यों का खर्च लगभग 6,70,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। हाल के वर्षों में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के चलते भी राज्यों के खजाने पर बोझ पड़ा है। आरबीआइ का अनुमान है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से केंद्र राज्यों पर जीडीपी के 0.9 प्रतिशत के बराबर भार पड़ेगा। पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से वित्त वर्ष 1999-2001 में राज्यों पर उनके जीएसडीपी के एक प्रतिशत के बराबर बोझ पड़ा था। इसी तरह छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से भी राज्यों के जीएसडीपी के 1.4 प्रतिशत के बराबर भार पड़ा था।
तेरहवें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि राज्यों को इस तरह की भर्ती और पगार नीति अपनानी चाहिए जिससे कि उनका कुल सेलरी बिल राजस्व व्यय (ब्याज भुगतान और पेंशन को छोड़कर) के 35 प्रतिशत से अधिक न हो। हालांकि हकीकत इससे अलग है। आरबीआइ की रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2017-18 में राज्यों का 'वेजज एंड सेलरीज' पर खर्च उनके राजस्व व्यय का 19.1 प्रतिशत से लेकर 54.6 प्रतिशत तक था। इससे पता चलता है कि पहले से ही इस मोर्चे पर राज्यों का प्रदर्शन लचर रहा है।
न्यूनतम आय पर वादा, 3.60 लाख करोड़ होंगे खर्च
न्यूनतम आय को लेकर किए वादे को पूरा करने के लिए 3 लाख से 3.60 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। हालांकि पहले इस पर पायलट प्रोजेक्ट होगा और फिर चरणों में लागू किया जाएगा लेकिन दूसरी योजनाओं और सब्सिडी के साथ अतिरिक्त पांच लाख करोड़ का खर्च जुटाना अर्थशास्त्रियों को भी परेशान कर रहा है।