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उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस के गठबंधन ने अब तक नहीं किया कोई बड़ा कमाल, इस बार कितनी असर दिखाएगी दोनों की जोड़ी?

उत्तर प्रदेश में एक दशक से चल रही भगवा आंधी में वजूद बचाने के लिए विरोधी पार्टियां चुनावों में गठबंधन तो करती रही हैं लेकिन अब तक बड़ा कमाल नहीं हुआ। इस चुनाव में मोदी सरकार की हैट्रिक रोकने के लिए सपा-कांग्रेस ने हाथ मिलाया है। तीन दशक से भी अधिक समय से सूबे की सत्ता से बाहर रहने से कांग्रेस का जनाधार लगातार खिसकता रहा है।

By Jagran News Edited By: Sonu Gupta Published: Mon, 25 Mar 2024 04:35 AM (IST)Updated: Mon, 25 Mar 2024 04:35 AM (IST)
कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा प्रमुख अखिलेश यादव। फाइल फोटो

अजय जायसवाल, लखनऊ। उत्तर प्रदेश में एक दशक से चल रही भगवा आंधी में वजूद बचाने के लिए विरोधी पार्टियां चुनावों में गठबंधन तो करती रही हैं लेकिन अब तक बड़ा कमाल नहीं हुआ। इस चुनाव में मोदी सरकार की हैट्रिक रोकने के लिए सपा-कांग्रेस ने हाथ मिलाया है। सवाल है कि क्या यह गठबंधन यूपी में मोदी के रथ को रोकने में कामयाब होगा? सपा-कांग्रेस की दोस्ती से क्या उनके समर्थक भी एक साथ खड़े होंगे?

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गठबंधन को लग सकता है झटका

80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में विभिन्न पार्टियों की अलग-अलग क्षेत्र और जातियों पर पकड़ रही है। पिछड़ी जातियों में यादव जहां सपा से जुड़ा रहा वहीं वंचित समाज (अनुसूचित जाति) बसपा के साथ खड़ा रहा है। तीन दशक से भी अधिक समय से सूबे की सत्ता से बाहर रहने से कांग्रेस का जनाधार लगातार खिसकता रहा है फिर भी भाजपा से नाराज सवर्ण वोटरों से उम्मीद बरकरार है।

माना जाता है कि विधानसभा चुनाव में सपा या बसपा का साथ देने वाला मुस्लिम समाज लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ रहता है बशर्ते कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा को हराने की स्थिति में दिख रहा हो। ऐसे में लगता है कि अबकी मुस्लिम समाज साथ देगा, लेकिन जिस तरह से अकेले चुनाव लड़ने वाली बसपा मुस्लिम प्रत्याशियों को उतारने की तैयारी में है गठबंधन को झटका लगने से इंकार नहीं किया जा सकता।

दावे की पोल खोलते हैं पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे

फिलहाल वजूद को लेकर फिक्रमंद दोनों दलों का मानना है कि उनका ‘विनिंग कंबिनेशन’ भाजपा को चित करने में सक्षम रहेगा, लेकिन पिछले दोनों लोकसभा चुनाव के नतीजे दावे की पोल खोलते हैं। पिछली बार सपा-बसपा व रालोद का गठबंधन था जबकि कांग्रेस अकेले थी। मायावती का तर्क था कि कांग्रेस को सहयोगी दल का वोट मिल जाता है लेकिन, कांग्रेस का वोट उसे ट्रांसफर नहीं होता। 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से बसपा और 2017 में सपा से समझौते के नतीजों के जरिए समझाती हैं कि कैसे कांग्रेस से गठबंधन का फायदा नहीं होता।

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फिर भी नहीं रोक पाईं भाजपा का विजय रथ

विदित हो कि 2014 के लोकसभा चुनाव में अलग-अलग चुनाव लड़े विपक्षी दलों ने अपनी दुर्दशा देख 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस और 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा, बसपा व रालोद ने गठबंधन किया लेकिन भाजपा को रोकने में कारगर नहीं रहे। विधानसभा चुनाव में सपा 47 और कांग्रेस सात सीटों पर सिमट गई थी। पिछले लोकसभा चुनाव में भी सपा पांच व कांग्रेस एक सीट जीत सकी।

सात वर्ष बाद सपा-कांग्रेस फिर साथ हैं। जिन 17 सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी उनमें से 12 सीटों (वाराणसी, गाजियाबाद, अमरोहा, बुलंदशहर, मथुरा, फतेहपुर सीकरी, सीतापुर, झांसी, बाराबंकी, इलाहाबाद, महाराजगंज व देवरिया) पर पिछले चुनाव में उसकी जमानत तक नहीं बची थी।

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