Move to Jagran APP

Lok Sabha Election 2024: तेलंगाना में क्षेत्रीय चरित्र पर भारी राष्ट्रीय सियासत, यहां किस पार्टी के सामने क्या है चुनौती?

Lok Sabha Election 2024 तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों पर चुनाव दिलचस्प है। यहां की क्षेत्रीय राजनीति में अब राष्ट्रीय राजनीति में भारी है। भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के कई नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया है। यहां तीसरी ताकत को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। राज्य में बीआरएस का कद घटा है क्योंकि पार्टी के भीतर के असंतोष से निपटने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।

By Jagran News Edited By: Ajay Kumar Published: Thu, 09 May 2024 09:10 PM (IST)Updated: Thu, 09 May 2024 09:10 PM (IST)
लोकसभा चुनाव 2024: तेलंगाना में क्षेत्रीय चरित्र पर भारी राष्ट्रीय सियासत।

अरविंद शर्मा, जागरण, हैदराबाद। तेलंगाना भी कर्नाटक की राह पकड़ चुका है। क्षेत्रीय दल सिमटते और राष्ट्रीय दल हावी होते जा रहे हैं। विधानसभा चुनाव में भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के पस्त होने और कांग्रेस के उभरने से तेलंगाना का राजनीतिक चरित्र बदलता दिख रहा है। राज्य की सत्ता में पहली बार कांग्रेस के आने के बाद से भाजपा की जमीन भी उर्वर होती जा रही है।

loksabha election banner

क्षेत्रीय सियासत की धारा पड़ रही मंद

लोकसभा चुनाव से पहले बीआरएस के बड़ी संख्या में सांसदों एवं विधायकों के पाला बदलने से भी क्षेत्रीय राजनीति की धारा मंद पड़ी है। करीब पांच महीने पहले विधानसभा चुनाव में तेलंगाना की लड़ाई त्रिकोणीय थी, लेकिन अब दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों भाजपा-कांग्रेस में आमने-सामने की टक्कर दिख रही है। इक्का-दुक्का क्षेत्रों में बीआरएस पांव को टिकाए रखने के प्रयास में है।

यह भी पढ़ें: कंगना रनौत के खिलाफ उतरे विक्रमादित्य के पास है इतनी संपत्ति, डेढ़ करोड़ रुपये की देनदारी भी

तीसरी ताकत करनी पड़ रही कड़ी मशक्कत

हैदराबाद में भाजपा और कांग्रेस के कार्यालयों की रौनक एवं बीआरएस कार्यालय का सन्नाटा बताता है कि राज्य की सत्ता से बेदखल होने के बाद तीसरी ताकत को टिके रहने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। बीआरएस की कमजोरियां धीरे-धीरे बेपर्दा होने लगी हैं।

घटा बीआरएस का कद

दिल्ली के शराब घोटाले में के. कविता की गिरफ्तारी से केसीआर परिवार और बीआरएस की छवि पहले ही खराब हो चुकी है। 10 वर्षों तक मनमाने तरीके से सत्ता चलाने और समर्पित कार्यकर्ताओं एवं मतदाताओं से दूरी बढ़ने के कारण केसीआर का राजनीतिक कद छोटा हुआ है।

पार्टी में नहीं थमा टूट का मामला

विधानसभा चुनाव बाद अभी तक करीब दर्जनभर सांसदों-विधायकों एवं बड़े नेताओं ने पाला बदल लिया है। अधिकतर कांग्रेस में चले गए या भाजपा में। पार्टी में टूट का सिलसिला थमा नहीं है। लोकसभा चुनाव के बाद भी कितने टिके रह पाएंगे, यह देखना होगा। केसीआर के लिए यह सबसे बुरा दौर है, क्योंकि पार्टी के भीतर के असंतोष से निपटने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। फिर भी समर्थकों का भटकाव कम नहीं हो पा रहा है।

...तो केसीआर के वोट बैंक में नहीं लगती सेंधमारी

सत्ता में रहते हुए ऐश-ओ-आराम से जीने वाले केसीआर के हालिया परिश्रम को देखकर लगता है कि उन्हें अहसास हो चुका है कि सतर्क नहीं हुए तो इतिहास होते देर नहीं लगेगी। कुछ महीने पहले तक बीआरएस के प्रति समर्पित रहे कार्यकर्ता श्रीकांत रमालू की व्यथा है कि जब तक सत्ता केसीआर के पास रही, तब तक वह आम आदमी से दूर रहे।

अब सर्वहारा बनने के बाद सड़कों पर अपने कुनबे के साथ पसीना बहा रहे हैं। दरअसल, राज्य के सभी 17 संसदीय क्षेत्रों में केसीआर बस से घूम रहे हैं। अगर सत्ता में रहते हुए भी इतना श्रम कर लेते तो उनके वोट बैंक में कांग्रेस और भाजपा सेंधमारी नहीं कर पाती।

वोट बैंक हथियाने की जुगत में कांग्रेस

पिछले वर्ष के अंत में बीआरएस को हराकर राज्य की सत्ता में आने वाली कांग्रेस ने केसीआर के वोट बैंक पर नजरें जमा रखी हैं। मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी उसी शस्त्र से बीआरएस की जड़ें उखाड़ने की कोशिश में हैं, जो कभी केसीआर के शस्त्रागार में हुआ करता था। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ केसीआर का अलिखित समझौता रहता था।

कांग्रेस ने ओवैसी के खिलाफ उतारा मुस्लिम चेहरा

केसीआर हैदराबाद में ओवैसी का ख्याल रखते थे और बदले में पूरे प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक की सहानुभूति प्राप्त करते थे। रेवंत रेड्डी ने उनका ही अनुशरण किया। सत्ता में रहकर जो काम केसीआर करते थे, वही काम अब रेवंत करने लगे हैं।

कांग्रेस ओवैसी के खिलाफ पहले तो अंतिम तिथि तक प्रत्याशी उतारने से परहेज करती रही और अंत में वलीउल्लाह समीर को उतार दिया। मुस्लिम वोटों को फिर से अपना बनाने के लिए प्रयासरत बीआरएस के घुटने पर यह प्रहार जैसा है।

भाजपा के लिए अनुकूल होता जा रहा तेलंगाना

क्षेत्रीय दलों की तुलना में कांग्रेस से सीधी लड़ाई में भाजपा का आत्मविश्वास बढ़ता है। वोट का भी फायदा होता है। 2019 के आम चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच देश में 190 सीटों पर सीधी टक्कर थी। इसमें भाजपा 175 में विजेता रही। पिछली बार तेलंगाना से चार सीटों का जुगाड़ करने वाली भाजपा के लिए इस बार का भी सियासी मौसम अनुकूल दिख रहा है।

ग्रेटर हैदराबाद की तीन सीटों समेत तेलंगाना के उत्तरी क्षेत्र में भाजपा मजबूत हो चुकी है, लेकिन दक्षिण और मध्य भाग में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि, ओबीसी के मोर्चे पर कमजोर है। करीमनगर के प्रत्याशी बंडी संजय को प्रदेशाध्यक्ष पद से हटाने के बाद इस समुदाय में भाजपा की पैठ कम हुई है।

भाजपा

  • मजबूत पक्ष: तेलंगाना में कांग्रेस के सत्ता में आने और बीआरएस के बिखरने से भाजपा के पक्ष में माहौल बना है।
  • कमजोर पक्ष: प्रदेश अध्यक्ष पद से बंडी संजय को हटाए जाने के बाद से पार्टी की आक्रामकता में कमी आई है। गुटबाजी भी उभरी है।

कांग्रेस

  • मजबूत पक्ष: अलग राज्य बनने के बाद पहली बार सत्ता में आई है। रेवंत रेड्डी युवा एवं आक्रामक सरकार चला रहे।
  • कमजोर पक्ष: विधानसभा चुनाव के समय की छह गारंटियों को अभी तक पूरा नहीं किया। पब्लिक में आक्रोश बढ़ रहा।

बीआरएस

  • मजबूत पक्ष: 10 साल तक लगातार सत्ता में रहने से ग्राम स्तर पर संगठन खड़ा है। संसाधन भी है।
  • कमजोर पक्ष: परिवारवादी राजनीति। विधानसभा चुनाव हारने के बाद नेता टूटने लगे हैं और कार्यकर्ता उदास होने लगे हैं।

यह भी पढ़ें: पंजाब में अक्षय तृतीया पर चढ़ेगा सियासी पारा, ये प्रत्याशी कल दाखिल करेंगे अपना नामांकन


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.