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Lok Sabha Election 2019 मराठा क्षत्रप शरद पवार: विश्वसनीयता के मोर्चे पर आखिर क्यों खा जाते हैं मात

Lok Sabha Election 2019 महाराष्ट्र की राजनीति में सत्ता किसी भी दल की हो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मराठा क्षत्रप शरद पवार की हनक और वजन आज भी सबसे ज्यादा मानी जाती है।

By BabitaEdited By: Published: Mon, 18 Mar 2019 11:07 AM (IST)Updated: Mon, 18 Mar 2019 11:11 AM (IST)
Lok Sabha Election 2019 मराठा क्षत्रप शरद पवार: विश्वसनीयता के मोर्चे पर आखिर क्यों खा जाते हैं मात
Lok Sabha Election 2019 मराठा क्षत्रप शरद पवार: विश्वसनीयता के मोर्चे पर आखिर क्यों खा जाते हैं मात

मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। Lok Sabha Election 2019 इसमें कोई शक नहीं कि वह राजनीति की गहरी समझ रखते हैं। देश के सभी बड़े नेताओं से उनके व्यक्तिगत संबंध हैं। कहा जाता है कि उनके पास संसाधनों की भी कमी नहीं है।महत्वाकांक्षी हैं, लेकिन वास्तविकता का आकलन करके ही उड़ान भरते हैं। इतने गुणों के बावजूद विश्वसनीयता के मोर्चे पर वह जाने क्यों मात खा जाते हैं। उन्हें जानने वाले यह कहते सुने जा सकते हैं कि पवार जो कहते हैं, उसका उलटा करते हैं।

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सत्ता किसी भी दल की, हनक शरद पवार की

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मराठा क्षत्रप शरद पवार को कुछ इसी रूप में जाना जाता है। महाराष्ट्र की राजनीति में सत्ता किसी भी दल की हो, हनक और वजन आज भी शरद पवार की ही सबसे ज्यादा मानी जाती है। 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ कांग्रेस से अलग हुए पवार के प्रति कांग्रेस की कटुता कम तो नहीं रही होगी। इस अलगाव के तुरंत बाद हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में दोनों दल इसी कटुता के साथ अलग-अलग लड़े। कांग्रेस को 75 और राकांपा को 58 सीटें मिलीं। जबकि साढ़े चार साल से साथ-साथ सत्ता में रहे शिवसेना-भाजपा गठबंधन मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद 125 सीटों पर सिमट गए। इसके बाद भी शिवसेना भाजपा चाहती तो उनके लिए राज्य विधानसभा में 145 के जादुई आंकड़े को छूना मुश्किल नहीं था। लेकिन मिलकर चुनाव लड़ने वाले दोनों सत्तारूढ़ दल तब मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए आपस में झगड़ते रहे और शातिर खिलाड़ी शरद पवार ने उसी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया, जिससे चंद दिनों पहले ही वह अलग हुए थे। 

समय आने पर झुकने में भी तकलीफ नहीं 

शिवसेना-भाजपा के हाथ से तब की फिसली सत्ता 2014 की मोदी लहर में ही वापस आ सकी। सत्ता का यह ताज कांग्रेस-राकांपा गठबंधन के पास बनाए रखने के लिए समय आने पर शरद पवार ने झुकने में भी तकलीफ महसूस नहीं की। 2004 के विधानसभा चुनाव में राकांपा को कांग्रेस से दो सीटें ज्यादा मिली थीं। गठबंधन फार्मूले के अनुसार अधिक सीट पाने वाले को मुख्यमंत्री पद हासिल होना था। लेकिन कांग्रेस मुख्यमंत्री पद न छोड़ने पर अड़ गई। पवार ने सीएम पद कांग्रेस के लिए छोड़ रार पर विराम लगा दिया और सत्ता फिर पांच साल के लिए कांग्रेस-राकांपा के पास आ गई।

वोट फीसद कम होने से बढ़ा दबाव  

1999 के लोकसभा चुनाव में यह जहां 21.58 फीसद था, वहीं 2014 में घटकर 16.12 फीसद हो गया है। राकांपा की इसी कमजोरी के कारण कांग्रेस हमेशा उस पर दबाव बनाने में सफल रही। कांग्रेस ही नहीं, अब तो प्रकाश आंबेडकर जैसे नेता भी कांग्रेस से राकांपा को छोड़कर उनसे गठबंधन करने की बात करते दिखाई देते हैं। जबकि 1998 के लोकसभा चुनाव में पवार की ही कुशल रणनीति के कारण सभी रिपब्लिकन गुटों को साथ लेकर लड़ी कांग्रेस 48 में से 38 सीटें जीतने में सफल रही थी। तब पहली बार चार आंबेडकरवादी नेता एक साथ संसद में पहुंचे थे।

भाजपा को बिना शर्त समर्थन देकर सबको किया चकित

कांग्रेस व अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन धर्म को ठीक से निभाने के बावजूद शरद पवार विश्वसनीयता के संकट से हमेशा जूझते रहे हैं। वह कब-क्या कर देंगे, कोई नहीं जानता। 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद जब शिवसेना यह मानकर चल रही थी कि सत्ता से 23 सीट पीछे रह गई भाजपा के पास उसकी खुशामद के सिवा और कोई चारा नहीं है, तब पवार ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देकर सबको चकित कर दिया था। 

प्रधानमंत्री बनने का देख लिया था सपना

पवार ने 2004 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद मुख्यमंत्री पद इस उम्मीद में छोड़ दिया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन की स्थिति में वह संप्रग की ओर से पीएम पद के उम्मीदवार हो सकते हैं और कांग्रेस इस अहसान के बदले उन्हें समर्थन कर सकती है। लेकिन 2009 में न सिर्फ महाराष्ट्र विधानसभा में, बल्कि लोस में भी राकांपा की सीटें कांग्रेस से काफी कम हो गईं और सूबे में कांग्रेस पर उनका दबाव भी कम हो गया। वास्तव में 1999 में कांग्रेस से बगावत करने के समय से ही पवार पीएम पद का स्वप्न पाल बैठे थे। उम्मीद थी कि बगावत का यह कदम उन्हें गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मोर्चे का नेता बना देगा। लेकिन इसे उनका दुरुपयोग ही कहेंगे कि राज्य में ही राकांपा का मत प्रतिशत लगातार कम होता जा रहा है। 


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