Lok Sabha Election 2019: महाराष्ट्र में शिवसेना को सिर्फ क्षेत्रीय सूबेदारी की फिक्र
चार साल पहले महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के बीच जो तकरार शुरू हुई थी वह अब 2019 लोकसभा चुनाव में खत्म हो गई है। शिवसेना भाजपा के सहारे अपने क्षेत्रीय वोटों पर नजर बनाए हुए है।
मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के मुंह से अंतत: वह शब्द निकल ही गए, जिसे सुनने के लिए भारतीय जनता पार्टी पिछले साढ़े चार साल से तरस गई थी। उद्धव ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। उद्धव के ये शब्द 15 मार्च को नागपुर में आयोजित शिवसेना-भाजपा के संयुक्तकार्यकर्ता सम्मेलन में निकले। इन दिनों ये सम्मेलन दोनों दलों के बीच पिछले विधानसभा चुनाव के बाद पैदा हुई खटास दूर करने के लिए आयोजित किए जा रहे हैं। अलग-अलग जिलों में हो रहे इन सम्मेलनों में शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस दोनों शामिल हो रहे हैं। दोनों दलों के कार्यकर्ता मिलकर विरोधी दलों का मुकाबला करने और राज्य में पिछले लोकसभा चुनाव से भी ज्यादा सीटें जीतने का संदेश दे रहे हैं।
जबकि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद दोनों दलों में पैदा हुई खटास के बाद से शिवसेना मोदी लहर को बार-बार झुठलाती रही है। कई अवसरों पर तो वह विपक्षी दलों से भी आगे बढ़कर भाजपा की आलोचना करती नजर आई क्योंकि विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उसकी जमीन खिसका दी और दो साल पहले हुए मुंबई महानगरपालिका चुनाव में उसके लगभग बराबर जा खड़ी हुई। शिवसेना को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। वह केंद्र में तो भाजपा को मनचाहा समर्थन देने को तैयार है, लेकिन सूबे की सियासत में बड़े भाई का दर्जा अपने पास ही रखना चाहती है।
1989 में लोकसभा व विधानसभा चुनावों के लिए शिवसेना-भाजपा के बीच हुए गठबंधन के समय तय किया गया था कि केंद्र की राजनीति में भाजपा जबकि राज्य की राजनीति में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में रहेगी। लेकिन राजनीति सिर्फ फार्मूले पर नहीं हो सकती है।
जमीनी हकीकत बदलनी शुरू हुई और 2014 में मोदी लहर के बाद जो स्थिति बनी उसमें विधानसभा के वक्तदोनों साथी अलग हो गए। भाजपा ने यह साबित कर दिया कि बड़े भाई होने की क्षमता उसमें है। शायद उस वक्तउद्धव यह समझने को तैयार नहीं थे कि राजनीति में व्यक्तित्व की बड़ी भूमिका होती है और उनके पिता बाला साहेब ठाकरे की अनुपस्थिति ने कई समीकरण बदल दिए थे। पर महाराष्ट्र की सच्चाई कुछ ऐसी है कि अलग-अलग होने के बावजूद दोनों को एक दूसरे के साथ ही रहना पड़ रहा है। राज्य में दोनों को मिलकर ही सरकार बनानी पड़ी। यही नहीं, दो साल बाद हुए मुंबई महानगरपालिका चुनाव में भी भाजपा 82 सीटें जीतकर शिवसेना से सिर्फ दो सीटें पीछे रही। शिवसेना के लिए यह और बड़ा झटका था क्योंकि मुंबई को वह अपना अजेय गढ़ मानती आई है।
पिछले चार वर्षों में राज्य के अन्य स्थानीय निकायों में भी भाजपा की स्थिति शिवसेना से बेहतर होती गई है। राज्य में इस प्रकार बदलते समीकरणों को शिवसेना नेतृत्व समझ रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उद्धव ठाकरे मुंबई महानगरपालिका व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी के प्रति प्रबल आग्रही जरूर हैं, लेकिन परिस्थितियों के अनुसार चलना भी जानते हैं। उनके इसी गुण का परिणाम है कि 2014 का विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़कर, एक-दूसरे को खरीखोटी सुनाकर भी न सिर्फ देवेंद्र फड़नवीस के शपथग्रहण समारोह में पहुंचे थे, बल्कि कुछ माह बाद फड़नवीस सरकार में शामिल होने का निर्णय भी कर लिया था। या कहा जाए कि महाराष्ट्र की जनता ने यह तय कर दिया है कि वैचारिक स्तर पर एक दूसरे के करीब इन दलों को साथ ही रहना चाहिए। इस हकीकत को समझते हुए ही दोनों दल फिर गले मिले हैं।
हालांकि यह सवाल भी उठने लगा है कि सात-आठ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में शिवसेना का क्या रुख होगा। शक नहीं होना चाहिए कि शिवसेना में क्षेत्रीय सूबेदारी का ओहदा फिर से हासिल करने की मंशा तेज है।