Loksabha Election 2019 : अवध में सज रहा बड़े मुकाबलों का मंच, होगा सर्वाधिक चुम्बकीय एवं बड़ा मुकाबला
अगले दो महीने इस धरती पर राजनीति का मुकाबला देश के सर्वाधिक ज्वलंत सवालों से होगा तो यही अवध कई सवालों के जवाब भी देगा।
लखनऊ [सद्गुरू शरण]। यह अवध है, ऋषि -नरेशों की सेवा-भूमि, जिनके लिए प्रजा (मौजूदा संदर्भ में जनप्रतिनिधि और मतदाता) की सेवा और इच्छा से बढ़कर कुछ नहीं। लंका विजय के बाद अपने सतीत्व की अग्निपरीक्षा देकर अयोध्या लौटीं सीता को गर्भ में लव-कुश धारण किए दोबारा वनवासी जीवन गुजारना पड़ा, क्योंकि अयोध्या का एक आम नागरिक उनकी अग्निपरीक्षा से संतुष्ट नहीं था। उसके सवाल का जवाब सीता का वनवास था।
इतिहास ने इसे अवध नरेश का अन्याय माना, पर यह उन मर्यादा पुरुषोत्तम राम का न्याय था जिनके लिए जनता सचमुच जनार्दन थी। सिर्फ एक व्यक्ति की शंका मिटाने के लिए महारानी को कठोरतम वनवास की नजीर युगों के इतिहास में अवध के अलावा दुर्लभ है।
ऐसी असाधारण लोकतांत्रिक परंपराओं वाली अवध-भूमि पर लोकसभा चुनाव का शंखनाद कई मायनों में देश के बाकी अंचलों से भिन्न है। अगले दो महीने इस धरती पर राजनीति का मुकाबला देश के सर्वाधिक ज्वलंत सवालों से होगा तो यही अवध कई सवालों के जवाब भी देगा। देश के सशक्ततम राजनीतिक परिवार का प्रारब्ध यहीं तय होगा। इस परिवार के कुलदीपक राहुल गांधी जब अमेठी में ग्लैमरस एवं तेज-तर्रार नेत्री स्मृति ईरानी से मुकाबिल होंगे तो मिशन-2019 का तमाम नूर इसी सीट पर सिमट जाएगा। माना जा रहा है कि यह इस लोकसभा चुनाव का सर्वाधिक चुम्बकीय एवं बड़ा मुकाबला होगा।
भाजपा ने 2014 में ईरानी को ऐन चुनाव के वक्त अमेठी भेजा था। इसके बावजूद उन्होंने अपनी लोकप्रियता से राहुल गांधी और राजनीतिक समीक्षकों, यहां तक कि भाजपा नेतृत्व को चौंका दिया था। चुनाव हारने के बाद ईरानी लगातार अमेठी आती-जाती रहीं। जाहिर है, इस बार वह अधिक आत्मविश्वास, तैयारी और आक्रामकता के साथ राहुल को चुनौती देने जा रही हैं। उनके पीछे भाजपा की सारी ताकत राहुल को अमेठी में ही घेरने के लिए लगेगी। चुनौती भांपकर गांधी-नेहरू परिवार ने प्रियंका वाड्रा के रूप में अपना ट्रंप कार्ड भी चल दिया है। ऐसे में अवध यह भी तय करेगा कि स्व. इंदिरा गांधी की छाया मानी जा रहीं प्रियंका का राजनीतिक भविष्य क्या है।
अयोध्या ही अवध की पौराणिक राजधानी है, जहां प्रभु राम की जन्मस्थली पर भव्य मंदिर निर्माण की अभिलाषा अब तक प्रतीक्षारत है। सत्ताधारी राजनीति नेतृत्व को अवध से उठा यह सवाल देश की हर संसदीय सीट पर मौजूद मिलेगा कि राम मंदिर के लिए अब कितना इंतजार और? रामलला बीते 26 वर्ष से टाट के अस्थायी मंदिर में विराजमान हैं। यह दृश्य हर सनातनधर्मी को बेचैन करता है। राम मंदिर की अभिलाषा ने जिस राजनीतिक विचार को पिछले ढाई दशक में विस्तृत होने की वजह और जगह दी, उस अभिलाषा को अब तक राजनीति से बहाने ही मिले। क्यों? अवध का यह सवाल चुनाव में बहुतों को असहज करेगा।
देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की पवित्र भूमि अयोध्या और इसकी भाव-भगिनी सरयू की बदहाली भी एक बड़ा सवाल है। सनातन परंपरा के महानतम अवतार की जन्मभूमि पर नागरिक सुविधाओं का अभाव ऐसा सवाल है जिसका जवाब राजनीतिक नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा।
लखनऊ राजधानी है। दो दशक पहले खान-पान, बोलचाल और रहन-सहन की तहजीब पर आत्ममुग्ध रहने वाले शहर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रयास से कुएं के बाहर झांककर तरक्की पसंद दुनिया देखी और खुद को बदलना शुरू किया। तब से काफी कुछ बदल गया। मेट्रो ट्रेन बदलाव के सफर का सबसे नया पड़ाव है। इससे पहले कई सड़कें, फ्लाईओवर, ऑडिटोरियम, विश्वविद्यालय, अस्पताल और स्टेशन बने, पर एक भी ऐसी औद्योगिक इकाई नहीं आई, जिसके नाम पर लखनऊ की नई पहचान बनती। जो विकास हुआ, वह बगैर सोचे-समझे, हड़बड़ी में। बेहतर होता कि लखनऊ की विश्वविख्यात संस्कृति और जीवनशैली की बुनियाद पर ही नया लखनऊ विकसित किया जाता, पर पत्थर और पट्टिकाप्रेमी राजनीतिज्ञों से ऐसे विजन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यही वजह है कि पिछले दो-ढाई दशक में लखनऊ पत्थर का शहर बनकर रह गया। नव-विकसित शहर में आकर्षक अट्टालिकाएं हैं, सितारा होटल हैं, क्लब हैं, चौड़ी-चिकनी सड़कें हैं, मेट्रो ट्रेन है। और भी बहुत कुछ है, पर लखनऊ नहीं है।
मलिन गोमती की जिजीविषा ठहर सी गई है। ऐसा लगता है, मानो उसने हथियार डाल दिए। उसे उदास देखकर उसके तट पर पतंगें भी अब आसमान से होड़ नहीं करतीं। घरों के आगे चबूतरे सूने पड़े हैं। वहां शतरंज की बिसात अब कम ही बिछती है। नुक्कड़ों पर तीतरों की भिड़ंत दुर्लभ हो गई। राजनीति ने अवध के इस हृदयस्थल को मेट्रो दी, पर उसका अल्हड़पन, चकल्लस और मस्ती छीनकर। राजनीति ने अपनी सुविधा के लिए नया लखनऊ बसा लिया, पुराने लखनऊ की कीमत पर। वैसे यह उदासी और वीरानगी पूरे अवध में पसरी है। चिमनियों का धुएं से रिश्ता टूट गया। नए उद्योग आए नहीं, पुराने बंद हो रहे। किसानों के लिए अपना गन्ना कसैला हो गया। मेधा निराश होकर दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और पुणो चली गई। आम, आलू और दूध उत्पादकों की नई पीढिय़ां अपने अभिभावकों का हाल देखकर नौकरियां तलाश रही हैं।
अवध बेचैन है। उसकी विशिष्ट पहचान संकट में है। इन हालात के लिए जो राजनीति जिम्मेदार है, वह वोट की याचक बनकर हाजिर होने वाली है। सवाल तैयार रखिए। हो सकता है, न्याय न मिले, क्योंकि अब कोई मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं है। यह जानते हुए भी सवाल पूछिए, क्योंकि सवाल पूछने वाला व्यक्ति उस युग में भी निहायत साधारण नागरिक था। सवाल पूछना आपका अधिकार भी है और पहचान भी। यह अपने नुमाइंदों पर छोड़ दीजिए कि वे जवाब देते हैं या नहीं। वे नहीं देंगे तो समय आपके सवालों के जवाब जरूर देगा। मत भूलिए, विद्रूपता और विसंगति पर हम मौन रहे तो इतिहास हमें भी अपराधी मानेगा।
रायबरेली को नहीं हुआ वीआइपी होने का एहसास
जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री हुआ करती थीं, रायबरेली अपने भाग्य पर इतराती थी। अब उदास है। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनीं, पर यूपीए के दस साल के शासनकाल में वह प्रधानमंत्री से कम भी नहीं थीं। बहरहाल, रायबरेली को यह एहसास कभी नहीं हुआ। उसकी झोली में आज ऐसा कुछ भी नहीं, जिसे सामने रखकर वह विशिष्ट होने की गलतफहमी भी पाल सके। वही हाल अमेठी और सुलतानपुर का भी है। अन्य जिलों की तो खैर बिसात ही क्या। अमेठी में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के बीच होगा सबसे बड़ा मुकाबला।