सपा-बसपा गठबंधन की सबसे बड़ी परीक्षा, जातीय गठबंधन का तय होगा भविष्य
सबसे बड़ी परीक्षा सपा- बसपा गठबंधन की है जिसे चुनाव से पहले तक अजेय समझा गया और आपसी समन्वय से दोनों दलों के बड़े नेताओं ने भाजपा के सामने एक मजबूत दीवार भी खड़ी की।
हरिशंकर मिश्र, लखनऊ। एक्जिट पोल ने लोगों को बहस का विषय जरूर दे दिया है लेकिन इस बार के चुनाव में राजनीतिक दलों के वे अस्त्र भी दांव पर लगे हैं, जिन्हें अमोघ मानते हुए उन्होंने रणनीति को आगे बढ़ाया। इनमें सबसे बड़ी परीक्षा सपा- बसपा गठबंधन की है जिसे चुनाव से पहले तक अजेय समझा गया और आपसी समन्वय से दोनों दलों के बड़े नेताओं ने भाजपा के सामने एक मजबूत दीवार भी खड़ी की। हालांकि, भाजपा और कांग्रेस ने भी अपनी मजबूत किलेबंदी के लिए अन्य दलों का सहारा लेने में कोई चूक नहीं की। यही वजह है कि जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ा, वोटों की रस्साकशी भी तेज हो गई।
प्रदेश में लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटें होने की वजह से सभी राजनीतिक दलों की निगाहें यहां एक-एक सीट पर थीं। सपा-बसपा का गठबंधन होने के बाद दोनों दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती इसे निचले स्तर पर ले जाने की थी। इसलिए, चुनाव की घोषणा से पहले ही सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और मायावती ने इसकी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी। इसके लिए बूथ स्तर पर समन्वय कमेटियां तैयार की गईं। चूंकि दोनों दलों में लगभग ढाई दशकों से खुली दुश्मनी थी, इसलिए पार्टी के नेताओं को सार्वजनिक मंचों पर सावधानी पूर्वक बयान देने के ही निर्देश दिए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि चुनाव आते-आते यादव और दलितों में काफी हद तक समन्वय बनाने में इन्हें सफलता मिली और पूर्वांचल की कई सीटों पर इसका असर भी देखने को मिल सकता है।
खास यह कि इसमें रालोद भी जुड़ गया, जिससे गठबंधन पश्चिम में भी मजबूत दिखने लगा। चुनाव के दौरान अखिलेश और मायावती की संयुक्त रैलियों ने भी खासा प्रभाव छोड़ा। भाजपा के लिए यह बड़ी चुनौती थी। इसके लिए उसने प्रमुख रूप से पिछड़ों पर ही विशेष तौर पर टारगेट किया। उसने अपने तरकश में पूर्वांचल के कई छोटे दलों को शामिल किया। उत्तर प्रदेश के जो भी नतीजे होंगे उससे इस सवाल का जवाब जरूर मिलेगा कि जातीय राजनीति किस दिशा में जा रही है और क्या अब उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य में जाति कोई फैक्टर नहीं रह गया है। यह सवाल सपा और बसपा के प्रदर्शन के आकलन के आधार पर अपना उत्तर खुद देगा। इसीलिए तो इस राज्य को सबसे अधिक अहम माना जाता है।
राहुल-प्रियंका से जीवंत दिखी कांग्रेस
कांग्रेस चुनाव से पहले ही यह जानती थी कि उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। इसलिए, उसके नेताओं ने सधे कदम उठाए। प्रियंका गांधी वाड्रा के पूर्वांचल की कमान संभालने के साथ ही उन दलों पर ध्यान केंद्रित किया, जो छोटे भले ही थे लेकिन कुछ खास क्षेत्रों में असर कर सकते थे। अपना दल (कृष्णा पटेल), बाबू सिंह कुशवाहा की जन अधिकार पार्टी आदि उसके सहयोगी बने। इनके सहारे कांग्रेस ने अपना चुनाव आगे बढ़ाया। सपा, बसपा और रालोद से टिकट पाने में मायूस नेताओं में भी कई कांग्रेस से जुड़े। इस कारण इस दल के मतों में इस बार इजाफा देखने को मिल सकता है। राहुल की रैलियां और प्रियंका वाड्रा के रोड शो की वजह से कांग्रेस जीवंत दिखी।
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