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क्‍या 'दीदी' से दूर ही रहेगी दिल्‍ली? पिछले चुनाव में 34 और 22 सीटें जीतकर भी TMC नहीं बचा पाई राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा

Lok Sabha Election 2024 देश में लोकसभा चुनाव होना है। इस आम चुनाव में एक समय लग रहा था कि तृणमूल कांग्रेस विपक्षी गठबंधन आईएनडीआई के लिए शक्ति साबित हो सकती है लेकिन ममता बनर्जी ने कुछ ऐसी राह पकड़ी कि कांग्रेस हाथ मलते रह गई। साल 2014 से लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से तृणमूल ‘हार’ जा रही है।

By Jagran News Edited By: Deepti Mishra Published: Sat, 16 Mar 2024 04:00 AM (IST)Updated: Sat, 16 Mar 2024 04:12 AM (IST)
Lok Sabha Election 2024: जीत कर भी ‘हार’ जा रही है तृणमूल

 जयकृष्ण वाजपेयी, कोलकाता। अपनी स्थापना के कुछ माह बाद ही जिससे हाथ मिलाकर केंद्र की सत्ता में अहम भागीदार बनी, आज उसी के कारण तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक दिख रही है। इस आम चुनाव में एक समय लग रहा था कि तृणमूल कांग्रेस विपक्षी गठबंधन आईएनडीआई के लिए शक्ति साबित हो सकती है, लेकिन ममता बनर्जी ने कुछ ऐसी राह पकड़ी कि कांग्रेस हाथ मलते रह गई।

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वैसे तृणमूल के लिए यह भी कह सकते हैं कि 2014 से लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से तृणमूल ‘हार’ जा रही है। भले ही 2011 से लगातार तृणमूल कांग्रेस बंगाल की सत्ता पर काबिज है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वह अपनी पैठ और पकड़ बनाने में विफल रही है।

ममता के लिए बंद राष्ट्रीय राजनीति के द्वार!

एक जनवरी, 1998 को ममता बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल का गठन किया था। उसके बाद 1998 में सात, 1999 में आठ, 2004 में एक और 2009 में 19 लोकसभा सीटें जीतीं। साल 2014 से पहले तक भाजपा या फिर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर दिल्ली की राजनीति में तृणमूल ने अपनी उपयोगिता बना रखी थी, पर 2014 में 42 में से 34 और 2019 में 22 सीटें जीतने के बाद भी तृणमूल के हाथ कुछ नहीं आ रहा।

साल 2016 और 2021 के बंगाल विधानसभा चुनावों में लगातार भारी जीत दर्ज करने के बावजूद तृणमूल के लिए राष्ट्रीय राजनीति के द्वार नहीं खुल रहे हैं।

मुख्यमंत्री व तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी से लेकर उनके भतीजे व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी तक चुनावी प्रबंधन देखने वाले प्रशांत किशोर का साथ लेकर भी बंगाल के बाहर कुछ अधिक नहीं कर पाए। आज तो स्थिति यह हो चुकी है कि 2016 में तृणमूल को जो राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला था, वह भी पिछले वर्ष छिन गया। 

साल 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 77 सीटों पर रोककर ममता तीसरी बार जब सत्ता में लौटीं तो तृणमूल नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष के चेहरे के रूप में उन्हें प्रस्तुत करने लगे। ममता ने गोवा से लेकर त्रिपुरा, मेघालय, असम, उत्तर प्रदेश, हरियाणा के कांग्रेसी व पूर्व भाजपा नेताओं को पार्टी में शामिल करने की प्रक्रिया तेज कर दी।

अशोक तंवर, कीर्ति झा आजाद, सुष्मिता देव, ललितेश पति त्रिपाठी, शत्रुघ्न सिन्हा, गोवा के पूर्व सीएम व कांग्रेस नेता लुईजिन्हो फलेरियो जैसे नेताओं को पार्टी में शामिल कराया। दिल्ली से गोवा, मुंबई और उत्तर प्रदेश तक ममता ने दौरे किए और विभिन्न क्षेत्रीय दलों के शीर्ष नेताओं से मिलकर पहले गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा गठबंधन बनाने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली।

I.N.D.I.A से हुआ मोहभंग

इसके बाद फिर से अपने दल के राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव विस्तार के लिए ममता ने 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों की एकजुटता की धुरी बनने का प्रयास किया, लेकिन इसमें भी विफल रहीं। अब जब कुछ ही दिनों में तृणमूल का आईएनडीआईए से मोहभंग हो गया है, तब वह बंगाल की सभी 42, असम और मेघालय की दो सीटों पर अकेले मैदान में है।

संदेशखाली और घोटालों का गहरा साया

भ्रष्टाचार, घोटालों से लेकर संदेशखाली जैसी घटनाओं में घिरी तृणमूल के लिए इस बार का लोकसभा चुनाव काफी अहम है। अगर इन परिस्थितियों में भी अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार कर पाती है, तो राष्ट्रीय राजनीति पर उसका महत्व बना रहेगा, लेकिन भाजपा की तगड़ी चुनौती के बीच अगर उसकी ताकत घटी तो फिर उसके लिए अपनी पूछ बनाए रखना मुश्किल होगा। पिछली बार भाजपा ने बंगाल में 18 सीटें जीतकर अपनी शक्ति जता ही दी थी।

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