जानिए कौन हैं ईश्वर चंद्र विद्यासागर जिनको लेकर पश्चिम बंगाल में मचा है बवाल
बंगाल के चुनावी इतिहास में पहला मौका है जब किसी मनीषी की मूर्ति टूटना मुद्दा बना है। ऐसा नहीं है कि विद्यासागर की प्रतिमा बंगाल में पहली बार तोड़ी गई है।
कोलकाता [राज्य ब्यूरो]। पश्चिम बंगाल में इस बार का लोकसभा चुनाव लंबे समय तक कई मायनों में याद रखा जाएगा। इनमें से एक हैं महान दार्शनिक, समाज सुधारक और लेखक ईश्वरचंद्र विद्यासागर का चुनावी मुद्दा बनना। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान कुछ उपद्रवियों ने उनकी मूर्ति तोड़ दी। इसके बाद से भाजपा व तृणमूल कांग्रेस दोनों के लिए विद्यासागर चुनावी मुद्दा बन गए हैं।
चुनाव में मूर्ति टूटना बना मुद्दा
यह बंगाल के चुनावी इतिहास में पहला मौका है, जब किसी मनीषी की मूर्ति टूटना मुद्दा बना है। ऐसा नहीं है कि विद्यासागर की प्रतिमा बंगाल में पहली बार तोड़ी गई है। 50 साल पहले नक्सल आंदोलन में शामिल युवकों ने इसी विद्यासागर कॉलेज के निकट स्थित ईश्वर चंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन रॉय, प्रफुल्ल रॉय और आशुतोष मुखर्जी की मूर्तियों को तहस-नहस कर दिया था।
कई लोगों केे जेहन में ताजा है 50 साल पहले की घटना
पचास वर्ष पहले की घटना आज भी कई लोगों को याद है और उन्हें उस आंदोलन का हिस्सा बनने का अफसोस भी है, लेकिन गत मंगलवार की गुंडागर्दी की वह 50 वर्ष पूर्व हुए उस हमले से तुलना करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने इसे त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ने की घटना के बराबर बताया, जहां भाजपा की जीत के बाद कुछ लोगों ने 'भारत माता की जय' के नारे लगाते हुए बुलडोजर से लेनिन की मूर्ति ढहाई थी। साथ ही उन्होंने कहा कि यह सिर्फ भाजपा द्वारा ताकत दिखाने का प्रयासभर था।
आंदोलन ने पुनर्जागरण का मार्ग किया था प्रशस्त
सामाजिक कार्यकर्ता कृष्णा बंद्योपाध्याय ने कहा-'राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां पूरी तरह एक-दूसरे से अलग होती हैं। हमने नई चीजों की शुरुआत के लिए ऐसा किया था । (उस वक्त माओवादियों ने न भांगले गोरा जाए न का प्रचार किया था)। उस आंदोलन ने विद्यासागर और राममोहन राय पर ध्यान केंद्रित करने के साथ बंगाल में पुनर्जागरण के पुनर्मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त किया था, जबकि गत मंगलवार की घटना को सिर्फ ताकत दिखाने के लिए अंजाम दिया गया।'
ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता था
उन्होंने आगे कहा-'पीछे मुड़कर देखते हैं तो हमें लगता है कि विद्यासागर की मूर्ति को तोड़ने से बचा जा सकता था। कभी नक्सलियों के कैंपेन की फायर ब्रांड शख्सियत रह चुके संतोष राणा महसूस करते हैं कि पार्टी के नेतृत्व का एक पक्ष सिपाही क्रांति के दौरान संस्कृत कॉलेज में ब्रिटिश सैन्यकर्मियों को पनाह देने के ईश्वरचंद्र विद्यासागर के फैसले को ब्रिटिश समर्थक कार्रवाई मानता था।
भारतीय इतिहास पर वैकल्पिक चर्चा का मार्ग प्रशस्त
भाकपा (माले) के तत्कालीन राज्य सचिव सरोज दत्ता मूर्तियों को ढहाने को सही मानते हैं। उन्होंने दावा किया विद्यासागर, राममोहन रॉय और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्तियों को प्रफुल्ल चाकी, खुदीराम, भगत सिंह, मंगल पांडेय और दूसरे शहीद क्रांतिकारियों से बदला जाना था। उन्होंने कहा-'हमने जो किया था, वह मंगलवार को हुई गुंडागर्दी जैसा नहीं था। अभिव्यक्ति के रूप में देखें तो यह नकारात्मक हो सकती है, लेकिन इसने सामंती ढांचे और वर्ग को तोड़ते हुए भारतीय इतिहास पर वैकल्पिक चर्चा का मार्ग प्रशस्त किया था।'
ऐसे थे ईश्वरचंद्र विद्यासागर
विद्यासागर का जन्म 26 सितंबर, 1820 को मेदिनीपुर में हुआ था। वह स्वतंत्रता सेनानी भी थे। ईश्वरचंद्र को गरीबों और दलितों का संरक्षक माना जाता था। उन्होंने नारी शिक्षा और विधवा विवाह कानून के लिए आवाज उठाई और अपने कार्यों के लिए समाज सुधारक के तौर पर पहचाने जाने लगे, लेकिन उनका कद इससे कई गुना बड़ा था। उन्हें बंगाल में पुनर्जागरण के स्तंभों में से एक माना जाता है। उनके बचपन का नाम ईश्वर चंद्र बंद्योपाध्याय था। संस्कृत भाषा और दर्शन में अगाध ज्ञान होने के कारण विद्यार्थी जीवन में ही संस्कृत कॉलेज ने उन्हें 'विद्यासागर' की उपाधि प्रदान की थी। इसके बाद से उनका नाम ईश्वर चंद्र विद्यासागर हो गया था।
समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने स्थानीय भाषा और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूलों की एक श्रृंखला के साथ कोलकाता में मेट्रोपॉलिटन कॉलेज की स्थापना की। उन्होंने इन स्कूलों को चलाने में आने वाले पूरे खर्च की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली। स्कूलों के खर्च के लिए वह विशेष रूप से स्कूली बच्चों के लिए बांग्ला भाषा में लिखी गई किताबों की बिक्री से फंड जुटाते थे।
विधवा विवाह के खिलाफ उठाया आवाज तब बना कानून
उन्होंने विधवाओं के विवाह के लिए खूब आवाज उठाई और उसी का नतीजा था कि विधवा पुनर्विवाह कानून-1856 पारित हुआ। उन्होंने खुद एक विधवा से अपने बेटे की शादी करवाई थी। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ भी आवाज उठाई थी। उनके इन्हीं प्रयासों ने उन्हें समाज सुधारक के तौर पर पहचान दी। नैतिक मूल्यों के संरक्षक और शिक्षाविद् विद्यासागर का मानना था कि अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं के ज्ञान का समन्वय करके भारतीय और पाश्चात्य परंपराओं के श्रेष्ठ को हासिल किया जा सकता है।
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