Lok Sabha Election 2019 : आयोग के चाबुक से सहमे बाहुबली, कर रहे अनुशासित प्रचार
सबको आतंकित कर देने वाले जुलूस इस बार कहीं नहीं दिख रहे जिनमें मोटरसाइकिलों पर सवार सिर पर झंडियां बांधे उन्मत्तों की लाल-लाल आंखें देखकर शहर बाजार सहम उठता था।
चक्रधरपुर, दिनेश शर्मा। Lok Sabha Election 2019 डिजिटल युग के चुनावी महासमर में काफी कुछ बदला-बदला सा दिख रहा है। अब चुनाव प्रचार में वह पुरानी आक्रामक शैली कहीं नहीं दिख रही। बीच-बीच में यहां वहां कुछ शिष्ट-अनुशासित जुलूस और सहमे प्रचार वाहन आते-जाते दिख जा रहे हैं। जिसके कारण चुनाव के नए लक्षण समझाने में पर्याप्त मशक्कत करनी पड़ रही है।
सबको आतंकित कर देने वाले धूम-धड़ाकेदार जुलूस इस बार कहीं नहीं दिख रहे, जिनमें मोटरसाइकिलों पर सवार सिर पर झंडियां बांधे उन्मत्तों की लाल-लाल आंखें और तमतमाए चेहरे देखकर शहर बाजार सहम उठता था। ऐसे जुलूसों के धक्के मुक्के खाकर सड़क की रोजमर्रा भीड़ गिरती पड़ती एक ओर सिमट जाती थी। चक्रधरपुर में निकले ऐसे ही एक मोटरसाइकिल जुलूस ने एक दबंग प्रत्याशी को डेढ़ दो दशक पूर्व चुनाव हरवा दिया था। चुनाव आयोग का चाबुक लगने के बाद इसकी जगह अब जुलूस और जनसम्पर्क की नई तहजीब सामने आ रही है।
बदला प्रचार का परिदृश्य
प्रचार के पुराने आक्रामक तरीके अब बीते दिनों की बात बन चुके हैं। प्रत्याशी अब इसकी जगह कार्यकर्ताओं को चुस्त दुरुस्त करने और चालाक हो चुके मतदाताओं तक उनके माध्यम से सीधे पहुंचने की रणनीति अपना रहे हैं। ङ्क्षसहभूम संसदीय क्षेत्र में नामांकन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद चक्रधरपुर, चाईबासा, सरायकेला की सड़कों गलियों में पिछली बार की तरह कोई चुनावी चकाचौंध या चहक नहीं दिख रही। चौक-चौराहे पर लोग चुनावी जुगाली करते तो मिल जा रहे हैं, ङ्क्षकतु कहीं कोई परंपरागत शोर-शराबा नहीं है। इस बार ज्यादातर क्षेत्रों में एक खास तरह की विचारमग्न स्थिरता है, जिसमें विमर्श के साथ ही रोचक गणित के लक्षण भी चमक रहे हैं। अब तक तो चुनाव का नाम आते ही गला फाड़-फाड़कर चीखते लाउड स्पीकरों के आक्रामक प्रचार और कदम कदम पर लदे फंदे बैनर, झंडे, झंडियों की घटाटोप छवि आंखों में घूम जाती रही है। लेकिन यह अवधारणा अब टूट रही है। इस बार चुनाव प्रचार का पूरा परिदृश्य ही उलटा हुआ है। अब न दीवारें चुनावी प्रचार से कराहती दिख रही हैं, न चौक चौराहे या सड़क गलियों में लाउड स्पीकर चिल्ला रहे हैं।
वोटाभिलाषी मुखड़ों पर मक्खनी विनम्रता
चुनाव क्षेत्रों में इस बार पुराने वोटहड़पू जबरिया नुस्खों की गंध नहीं है। इसकी जगह अब महीन रणनीतियां, नयी-नयी शैलियां और एक से बढ़कर एक युक्तियां बुनी जा रही हैं। इसके लिए बड़े-बड़े दिमाग काम में लाए जा रहे हैं। पहले वोटों के लिए जिस दबंगई का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता रहा है, अब उसकी जगह वोटाभिलाषी अनुरोधी मुखड़ों पर बहुत महीन-मक्खनी पिघली हुई विनम्रता घंसी पुती दिख रही है। चालाक हो चुके मल्टीमीडिया युग के वोटर को अपने झोले में समेटने के लिए तमाम हाई टेक-हाईप्रोफाइल उपाय भी किए जा रहे हैं। इधर एक बड़ी बात यह हुई है कि कानूनी दबाव बढऩे पर बाहुबली चाहे जहां कहीं भी हों, जेल में चाहे बाहर, चुनावी खेल में स्वयं को कानून के जाल में कसा-फंसा महसूस कर रहे हैं। सारा बाहुबल नाकाम और नाकारा साबित हो रहा है।
अंधेरे में इलेक्शन वर्क, छुप-छुपकर जनसम्पर्क
प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशियों से बचने के लिए अब इलेक्शन वर्क रात के अंधेरे में चल रहा है। बहाना है दिन की धूप-लू और लोगों के काम का समय। वोटर भी जाग-जागकर प्रत्याशियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं और अपनी मांग को सामने रखकर संतुष्ट होने के बाद ही आये वोटाभिलाषियों को उठने दे रहे हैं। इस क्रम में बताया तो यहां तक जा रहा है कि वोटर और प्रत्याशी के बीच अब कोरे आश्वासनों की कोई जगह ही नहीं रही। दिलचस्प यह कि यही नुस्खा अब ज्यादातर प्रमुख दल अपनाने लगे हैं। नेताओं की देखा-देखी इक्कीसवीं सदी का मतदाता भी बहुमुखी और उन्मुक्त आश्वासनी हो चुका है।
मतदाता कर रहे सभी का स्वागत
दरवाजे पर पहुंच रहे हर प्रत्याशी से वह किसी कुशल राजनीतिज्ञ की तरह मुस्कुराकर मिल रहा है और साथ देने का आश्वासन सबको समान ढंग से दे रहा है। चुनाव के बाद हर बार मुंह फेर लेने वाले राजनेताओं से उम्मीद तोड़ चुका वोटर यह मान चुका लगता है कि अभी ही जो प्राप्त हो सके, वहीं हाथ लगेगा। अन्यथा फिर अगले चुनाव तक नेताजी पीठ पर हाथ नहीं रखने देंगे। इसलिए वोटर और प्रत्याशी आपस में खुलकर सार्थक समझौते कर रहे हैं। दिक्कत यही है कि एक इलाके के वोटर एक जैसे समझौते एक से अधिक प्रत्याशियों से कर रहे हैं। इससे प्रत्याशियों के दिन उहापोह में गुजर रहे हैं।