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जानें, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1961 में लिखे पत्र में क्यों लिखा 'मतदाता सुधारें गलती'

11 दिसंबर 1961 को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एक पत्र लिखा था। इस पत्र में उन्होंने कहा था कि न तो ‘मील के पत्थर’ को चुनिए न ‘सड़क के खंभे’ को। वे आपका प्रतिनिध्तव नहीं कर सकते।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sun, 14 Apr 2019 10:52 AM (IST)Updated: Sun, 14 Apr 2019 10:52 AM (IST)
जानें, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1961 में लिखे पत्र में क्यों लिखा 'मतदाता सुधारें गलती'
जानें, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1961 में लिखे पत्र में क्यों लिखा 'मतदाता सुधारें गलती'

नई दिल्ली, जागरण स्पेशल। अब चूंकि सभी द्विसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों को विभाजित कर दिया गया है, आपको लोकसभा और विधानसभा के लिए एक-एक मत देना है। चुनाव मैदान में खड़े अनेक प्रत्याशियों में से आपको एक को चुनना है। यह एक ऐसा कार्य है, जिसके द्वारा आप विभिन्न प्रतिस्पर्धियों को संतुष्ट नहीं कर सकते। अंतिम निर्णय कई समस्याओं के सतर्क और सही मूल्यांकन पर निर्भर रहता है। प्रत्याशी, दल और उसका सिद्धांत, इन सभी पर विचार करना पड़ता है।

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कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। बुरा-बुरा ही है और दुष्ट वायु की कहावत की तरह वह कहीं भी और किसी का भी हित नहीं कर सकता। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनीयती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अत: ऐसी गलती को सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।

एक समय ऐसा था कि कांग्रेस के टिकट पर खड़े होने पर सड़क की बत्ती के खंभे (लैंप पोस्ट) को भी जनता मत दे सकती थी। प्रथम आम चुनाव में आचार्य नरेंद्र देव और आचार्य कृपलानी जैसे दिग्गज नेता ऐसे कांग्रेस प्रत्याशियों के हाथों पराजित हो गए जिनकी इनकी तुलना में कोई हस्ती नहीं थी। अब सड़क के खंभे वाला युग बीत गया है। किंतु ऐसी संभावना भी है कि घड़ी का दोलक दूसरी दिशा में झुक जाए। एक सज्जन ने हाल ही में यह उद्गार व्यक्त किया कि वे कांग्रेस प्रत्याशी के बदले ‘मील के पत्थर’ के लिए मतदान करना पसंद करेंगे, चाहे आप कांग्रेस में अपने विश्वास के कारण ‘सड़क के खंभे’ का चुनाव करें या कांग्रेस के प्रति अपनी घोर घृणा के कारण ‘मील के पत्थर का’ आप समान रूप से गलत हैं। यह मस्तिष्क के रोगी होने एवं मार्गच्युत होने का द्योतक है।

बताया जाता है कि अभी हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा है कि कांग्रेस में जो सबसे खराब है, वह भी विरोध- पक्ष के सर्वश्रेष्ठ से अच्छा है। यह मुझे मौलाना शौकत अली की याद दिलाता है जिन्होंने कहा था कि निष्कृष्टतम मुसलमान भी उनकी दृष्टि में महात्मा गांधी से अच्छा है। कोई भी विवेकशील व्यक्ति इन मनोवृत्तियों का समर्थन नहीं कर सकता। जो मतदाता किसी प्रतिक्रिया के आधार पर मतदान करता है, वह भी इसी श्रेणी में आता है। वह अपने निर्णय को अस्वस्थ प्रतिक्रियाओं से आविष्ट कर लेता है।

न तो ‘मील के पत्थर’ को चुनिए, न ‘सड़क के खंभे’ को। वे आपका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। यदि वे सदन में पहुंच गए तो वे विवेकपूर्वक विचार करने और निर्णय की आपकी अक्षमता को ही प्रतिभासित करेंगे। इसलिए आप अपना स्वयं का प्रतिनिधि चुनिए।

आपको एक अच्छा मनुष्य चाहिए। किंतु अच्छा मानव भी किसी बुरे दल में रहकर प्रभावकारी नहीं सिद्ध होगा। बड़े से बड़ा वीर भी टूटे या भोथरे हथियार के सहारे सफल नहीं होगा। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन का उदाहरण पर्याप्त है।

किंतु अच्छा दल कौन है? स्पष्ट ही वह, जो व्यक्तियों का एक समुच्चय मात्र नहीं है, बल्कि सत्ता हस्तगत करने की इच्छा से अलग एक विशिष्ट उद्देश्य से युक्त अस्तित्व वाली संस्था है। ऐसे दल के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं, साधन होनी चाहिए। दल के छोटे-बड़े सभी कार्यकर्ताओं में किसी उद्देश्य के प्रति निष्ठा होनी चाहिए। निष्ठा से स्वार्पण और अनुशासन की भावना आती है। अनुशासन का अर्थ केवल कतिपय कार्य करने या न करने की बाह्य एकरूपता नहीं है। ऊपर से आप जितना अनुशासन लादेंगे, दल की आंतरिक शक्ति उतनी ही कम होगी। राजनीतिक दल के लिए अनुशासन का वही स्थान है जो समाज के लिए धर्म का।

यदि कार्यकर्ताओं में निष्ठा और अनुशासन की भावना रहेगी तो दल के अंदर कोई गुट या मतभेद नहीं होगा। जब दल का हित स्वहित के आगे दब जाता है, तब गुटबाजी प्रारंभ हो जाती है। यही अहंकारी एवं विकृत चिंतन की सामाजिक अभिव्यक्ति है। मतभेदों से जर्जर दल अप्रभावकारी बन जाता है और कार्य करने की सारी क्षमता खो देता है।

एक अच्छे दल का तीसरा गुण यह है कि उसे कतिपय आदर्शों से आबद्ध होना और उसकी सारी नीतियां उन्हीं आदर्शों की उपलब्धि के दृष्टिकोण से तैयार की जानी चाहिए... राजनीतिक दल और नेता अपने व्यवहार के द्वारा राजनीतिक जीवन के मूल्य निर्धारित करते हैं, वे मानदंडों की स्थापना करते हैं। स्वाभाविक तौर पर उनकी नीतियों को किसी भी स्थिति में जन व्यवहार के इन मानकों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। जनतंत्र का अर्थ मात्र चुनाव नहीं है। इसके लिए सुसंगठित जनता, सुगठित दलों तथा राजनीतिक व्यवहार की सुव्यवस्थित परंपराओं की आवश्यकता होती है।

(11 दिसंबर, 1961 को पंडित दीनदयाल के लिखे पत्र से साभार)  


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