हर पार्टी के लिए अलग-अलग मतपेटी, अधिकारी वोट डलवाने के लिए नदी-पहाड़ और जंगल पहुंचे; फिर पेटियों का क्या हुआ?
पहले लोकसभा चुनाव में मतपेटियों और मतपत्रों को संबंधित मतदान केंद्रों तक पहुंचाना भी उस समय एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। आवागमन के साधन भी आज की तरह विकसित नहीं हुए थे। ऐसी स्थिति में पहाड़ों जंगलों मैदानी इलाकों में नदी-नालों को पार करते हुए पगडंडियो से गुजरते हुए नियत स्थान तक पहुंचने के लिए चुनाव कार्य में लगे अधिकारियों-कर्मचारियों को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी।
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। आज इस बात की कल्पना आकर करना कठिन है कि लोकसभा और विधानसभाओं के लिए 1951 में पहला आम चुनाव सम्पन्न कराना कितना बड़ा कार्य था। घर-घर जाकर मतदाताओं का पंजीकरण करना ही अपने आप में इतिहास बनाना था।
ज्यादातर मतदाता साक्षर नहीं थे, इस बात का ध्यान रखते हुए ही पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए चुनाव चिन्ह की व्यवस्था की गई, लेकिन तब मतपत्र पर नाम और चिन्ह नहीं थे। हर पार्टी के लिए अलग मतपेटी थी, जिन पर उनके चुनाव चिन्ह अंकित कर दिए गए थे। इसके लिए लोहे की दो करोड़ बारह लाख मतपेटियां बनाई गई थी और करीब 62 करोड़ मतपत्र छापे गए थे।
मतपेटियों को केंद्रों तक पहुंचाना था चुनौती
मतपेटियों और मतपत्रों को संबंधित मतदान केंद्रों तक पहुंचाना भी उस समय एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। आवागमन के साधन भी आज की तरह विकसित नहीं हुए थे। ऐसी स्थिति में पहाड़ों, जंगलों, मैदानी इलाकों में नदी-नालों को पार करते हुए, पगडंडियो से गुजरते हुए नियत स्थान तक पहुंचने के लिए चुनाव कार्य में लगे अधिकारियों-कर्मचारियों को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है।
इस सबके दौरान कई लोग बीमार पड़ गए। कुछ की मृत्यु भी हो गई और कुछ लूट के शिकार भी हुए। कहा जाता है कि पूर्वोत्तर में म्यांमार की सीमा से लगे मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में तो स्थानीय लोगों को यह कहकर तैयार किया गया कि आप इस मतदान सामग्री को तय स्थानों पर पहुंचाने में मदद करें, बदले में आपको एक-एक कंबल तथा बंदूक का लाइसेंस दिया जाएगा। इस तरह अलग-अलग क्षेत्रों में अलग तरीके अपनाए गए।
चुनाव आयुक्त की पहल से बचे साढ़े चार करोड़ रुपये
उस समय सुकुमार सेन मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए थे। मतदाताओं के पंजीकरण से लेकर, राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्नों का निर्धारण एवं साफ सुथरा चुनाव कराने के लिए योग्य अधिकारियों के चयन का काम उन्होंने बखूबी किया। वे सरकारी खजाने के पैसे की कितनी चिंता करते थे। इसका उदाहरण था- मतपेटियों को सुरक्षित रखना।
उन्होंने मतपेटियों को सुरक्षित रखने की हर संभव व्यवस्था की और 1957 के दूसरे आम चुनाव में इसकी वजह से करीब साढ़े चार करोड़ रुपये की बचत हुई। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि जिस चुनावी ढांचे के जरिये संसदीय लोकतंत्र का लंबा सफर हमने अभी तक तय किया है, उसके लिए स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही नहीं बल्कि स्वाधीनता के बाद भी लाखों लोगों ने अपना योगदान दिया है।
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