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पंद्रह साल पहले बिहार चुनाव और वर्तमान में पश्चिम बंगाल की चुनावी गाथा

देश में 17वीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं। अतीत में कई चुनावी किस्से हैं। 2001 में 23 वर्ष बाद बिहार में पंचायतों के कई चरणों में हुए चुनाव में सौ से अधिक लोग मारे गए थे।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sun, 28 Apr 2019 01:03 PM (IST)Updated: Sun, 28 Apr 2019 01:03 PM (IST)
पंद्रह साल पहले बिहार चुनाव और वर्तमान में पश्चिम बंगाल की चुनावी गाथा
पंद्रह साल पहले बिहार चुनाव और वर्तमान में पश्चिम बंगाल की चुनावी गाथा

नई दिल्ली, [जागरण स्पेशल]। देश में चुनाव का माहौल है। चुनाव के दौरान अतीत में कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जिन्हें चुनाव के दौरान फिर से याद किया जाता है। वो भी एक दौर था और ये भी एक दौर है। डेढ़ दशक पहले लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार की कई चुनावी घटनाएं हैं, जो एक बार फिर जिंदा हो उठी हैं। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल के हालिया लोकसभा चुनावों का जिक्र भी कई मायनों में बेहद महत्व है।  

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15 साल पहले बिहार चुनाव
बात ज्यादा पुरानी नहीं है, लेकिन आज की पीढ़ी को किसी अजूबे से कम नहीं लगेगी। डेढ़ दशक पहले बिहार में चुनावों के दिन गरीब और कमजोर वर्ग के लोग जान की सलामती के लिए घरों में रहते थे। तब बिहार में चुनाव आयोग के लिए मतदान कराना वाकई लोहे के चने चबाने जैसा था। चौतरफा हिंसा, मारकाट, बूथ लूट और दबंगई का दौर। 1995 के विधानसभा चुनाव के बाद से दबंगों का दखल खत्म होने लगा था। उसका पूरा श्रेय उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन और ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) को जाता है।

दरअसल, 1990 में पदभार ग्रहण करते ही शेषन ने बिहार में शांतिपूर्ण, निष्पक्ष और निर्भय वातावरण में चुनाव कराने को चुनौती की तरह लिया। 1991 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ। मतदान के दिन बड़े पैमाने पर बूथ लूट की घटनाएं हुईं। आयोग ने पटना लोकसभा का चुनाव ही रद कर दिया। इसके बाद शेषन ने बिहार में चुनाव आयोग की ताकत का व्यापक इस्तेमाल किया। 1995 के विधानसभा चुनाव में शेषन की जिद थी कि प्रत्येक बूथ पर मतदान तभी कराया जाएगा, जब वहां अद्र्धसैनिक बल की तैनाती होगी। इसके चलते राज्य में चार बार वोटिंग टली। नौबत यहां तक आई कि तय समय में चुनाव न होने पर एक सप्ताह के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। बहरहाल, शेषन के जिद की जीत हुई और कमोबेश पूरे प्रदेश में लंबे समय बाद भयमुक्त मतदान हुआ।

दबंगई का दौर
बिहार में चुनावी हिंसा की जड़ें पुरानी थीं। पहले गांव के जमींदार अपने कारिंदों के जरिये पसंद के प्रत्याशी को ज्यादातर वोट डलवा देता था। चूंकि उस समय की ग्रामीण व्यवस्था एक हद तक जमींदार के इर्द-गिर्द घूमती थी और उसकी ऊपर शासन-प्रशासन तक पहुंच होती थी, इसलिए आमलोग विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। बाद के दौर में जमींदारों की जगह बड़ी जोत वाले धनाड्य किसानों और दबंगों ने ले ली। यह एक प्रकार से साइलेंट बूथ कैप्चरिंग थी।

बाद के दौर में तो कई गुंडे-बदमाशों ने इसे अपना पेशा तक बना लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि चुनाव लड़ने वाले नेताओं ने इन अपराधियों का अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। यही दौर राजनीति के अपराधीकरण का भी था। चुनाव में अपराधियों के दबदबे के बाद ऐसा भी दौर आया, जब कुछ जातीय या वर्ग समूहों ने इस काम को सामूहिक रूप से अंजाम देना शुरू कर दिया। इस दौर में चुनावी हिंसा भी जमकर हुई। बूथ लूट या चुनावी प्रतिशोध के चलते कई लोगों को जान गंवानी पड़ी। कई इलाकों में लोग डर के मारे चुनाव बूथ तक जाने से परहेज करने लगे। बिहार में चुनावों का यह विकट दौर था।

  • 2001 में 23 वर्ष बाद बिहार में पंचायतों के कई चरणों में हुए चुनाव में सौ से अधिक लोग मारे गए थे।
  • 1971 के लोकसभा चुनाव में बूथ लूट की शिकायतों पर देश भर के 63 बूथों पर दोबारा मतदान कराए गए। इनमें 53 बूथ बिहार के थे।
  • 1984 के लोकसभा चुनाव में देश के 264 बूथों पर दोबारा मतदान के आदेश दिए गए। इनमें 159 बिहार के थे।

पश्चिम बंगाल चुनाव 2019

चुनाव आयोग ने 2004 लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक तीसरी बार बंगाल में विशेष चुनाव पर्यवेक्षक तैनात किया है। पिछले सप्ताह दूसरे चरण के मतदान से पहले उन्होंने कार्यभार संभाल लिया। पुलिस पर्यवेक्षक की बंगाल में पहले ही नियुक्ति कर दी गई थी। बावजूद इसके दो चरणों में जो कुछ हुआ, विशेष चुनाव पर्यवेक्षक अजय वी नायक ने उसी की तुलना बिहार के 10- 15 साल पहले के चुनावी हालात से कर दी।

  • पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास पुराना है। वाममोर्चा के शासनकाल से लेकर अब तक चुनावी हिंसा जारी है।
  • बंगाल में पहले तीन चरणों में 10 लोकसभा सीटों पर चुनाव संपन्न हो चुका है। अगले चार चरणों में यहां 32 और सीटों पर चुनाव होना है। पहले दो चरणों के चुनाव में किसी की मौत तो नहीं हुई थी। पर, छिटपुट हिंसा, ईवीएम में तोडफ़ोड़, मतदान केंद्रों को कब्जा में लेने की कोशिश, मतदाताओं को डराने- धमकाने की घटनाएं व राजनीतिक संघर्ष के मामले सामने आए हैं।
  • इसी के बाद नायक की चिंता सामने आई और तीसरे चरण में सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए। पांच सीटों के लिए केंद्रीय बलों की 324 कंपनियां तैनात की गईं।
  •  बावजूद इसके तीसरे चरण के मतदान के दिन बूथ के बाहर ही मुर्शिदाबाद में एक व्यक्ति पर धारदार हथियार से हमला किया गया जिसमें उसकी मौत हो गई।
  • जंगीपुर, मुर्शिदाबाद व मालदा में जमकर बमबाजी, गोलीबारी हुई थी। वोटरों को डराने के लिए अपराधियों ने हवा में गोली चलाई और बम फेंके।
  • राज्य में चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद से अब तक चुनाव आयोग कोलकाता और विधाननगर के दो पुलिस आयुक्त, वीरभूम, डायमंड हार्बर, कूचबिहार और मालदा के पुलिस अधीक्षक के साथ-साथ 13 पुलिस अधिकारियों को चुनाव कार्य से हटाया जा चुका है।
  • राज्य में पहले दो चरणों के मतदान में गड़बड़ी को देखते हुए चुनाव आयोग ने 92 फीसद बूथों पर केंद्रीय बलों की तैनाती सुनिश्चित किया। जो अब तक किसी भी राज्य में चुनाव के दौरान केंद्रीय बल की तैनाती का रिकॉर्ड है।
  • बंगाल में पहले चरण के बाद शेष छह चरणों में शांतिपूर्वक मतदान के लिए केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) के 41 हजार जवानों को तैनात करने का फैसला लिया गया था। परंतु, अब चौथे चरण में ही 552 कंपनी केंद्रीय बल, 98 फीसद बूथों पर तैनात करने का निर्णय लिया गया है।
  • इससे पहले पिछले साल पंचायत चुनाव में बूथ कैप्चरिंग और ईवीएम लूट की कई घटनाएं सामने आई थी। हिंसा में 12-13 लोगों की मौत हुई थी और सैकड़ों घायल हुए थे। सुप्रीम कोर्ट तक ने इसको लेकर राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी।

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