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Lok Sabha Election 2019: लोकतंत्र के महापर्व में जनता बने जनार्दन, बढ़ चढ़कर लें वोटिंग में हिस्सा

जब मतदाता सशक्त होंगे और हिंसा और काले धन को खारिज करेंगे तो हमें बेहतर चुनाव मिलेंगे। अगर लोकतंत्र जनता का जनता द्वारा जनता के लिए है तो उसे वोट के अलावा बड़ी भूमिका निभानी होगी।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sun, 28 Apr 2019 11:04 AM (IST)Updated: Sun, 28 Apr 2019 11:34 AM (IST)
Lok Sabha Election 2019: लोकतंत्र के महापर्व में जनता बने जनार्दन, बढ़ चढ़कर लें वोटिंग में हिस्सा
Lok Sabha Election 2019: लोकतंत्र के महापर्व में जनता बने जनार्दन, बढ़ चढ़कर लें वोटिंग में हिस्सा

त्रिलोचन शास्त्री। जिस तंत्र का निर्माण उसके लोगों द्वारा होता है, वही सही मायने में लोकतंत्र कहलाता है। इसी लोकतंत्र की बुनियाद को और मजबूती देने के लिए दुनिया के सबसे बड़े चुनावी उत्सव का दौर जारी है। लोग बढ़-चढ़कर निर्भय होकर अपने मतदान का इस्तेमाल कर चुनाव के इस महायज्ञ में अपने वोटों की आहुति दे रहे हैं। काश, यह सुनहरी तस्वीर चहुंओर नजर आती। हर क्षेत्र में महान विभूतियों को पैदा करने वाला देश का पश्चिम बंगाल इस मामले में पूरब साबित होता दिख रहा है।

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हाल ही में वहां की कानून व्यवस्था को लेकर चुनाव आयोग के विशेष पर्यवेक्षक अजय वी नायक ने कहा कि बंगाल में 10-15 वर्ष पहले वाले बिहार जैसे हालात हैं। इसीलिए तीसरे चरण के चुनाव के लिए वहां 92 फीसद केंद्रीय बलों की रिकॉर्ड तैनाती कर दी गई। पूर्व में बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी रह चुके नायक ने कहा कि मतदाताओं का राज्य पुलिस पर भरोसा नहीं है। वे केंद्रीय बलों की तैनाती के बगैर वोट डालने से कतरा रहे हैं। जो भी हो, यह स्थिति गणतंत्र के लिए शुभ तो कतई नहीं कही जा सकती है।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी भले ही चुनाव आयोग की हो, लेकिन किसी प्रयास को जब तक लोकतंत्र से जुड़ी हर कड़ी का सहयोग नहीं मिलेगा तब तक उसका सुर्ख रंग कैसे हासिल होगा। अब राज्य सरकारों को यह बताने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि वे भी भारतीय गणतंत्र के अभिन्न हिस्से होते हैं। मतदाता, राजनीतिक दल और समाज मिलकर जब तक सहयोग नहीं करेंगे, तब तक लोकतंत्र के सही मायने नहीं हासिल होंगे। चुनाव आयोग को और ताकतवर किया जाना चाहिए लेकिन जो अधिकार उसके पास हैं, उसे ही इस्तेमाल करने के लिए माहौल देना सभी सरकारों का दायित्व है।

हाल ही में चुनाव ड्यूटी पर तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी ने पश्चिम बंगाल और बिहार के चुनावों के बीच तुलना की। तुलना किया जाना अहम नहीं है किंतु चुनावों के दौरान होने वाली अनियमितताएं इसका मुख्य विषय था, जो किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए शुभ नहीं माना जाना चाहिए। यह समस्या देश के अन्य हिस्सों में दिखाई देती है। कई जगहों की मतदाता सूचियों में खामियां हैं। मतदाताओं के कुछ वर्गों को धमकियां मिलना आम बात है। दशकों बाद पहली बार हम चुनाव संबंधी हिंसा देख रहे हैं। काले धन का उपयोग उच्च स्तर पर पहुंच गया है और कई सौ करोड़ रुपये की नकदी जब्त की गई है।

हम चीजों को सही कैसे करें? इन समस्याओं का समाधान कौन करेगा? इन सबके पीछे सबकी साख से जुड़ा चुनाव है। न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि राज्य और निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर भी चुनाव बहुत उत्सुकता से लड़े जाते हैं। चुनाव जीतने के लिए धन और बाहुबल का इस्तेमाल किया जाता है। हमें यह पूछने की आवश्यकता है कि हम उन निर्वाचित प्रतिनिधियों से क्या उम्मीद करें, जो मतदाताओं को धमकाने और हिंसा में लिप्त हैं। क्या हम ऐसे प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे मतदाताओं के हितों को पुष्पित-पल्लवित करेंगे।

जो मतदाता ऐसे उम्मीदवार के लिए मतदान करने के लिए पहले से ही प्रतिबद्ध हैं उन्हें भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। मतदाता के रूप में अभी भी हम अपने उम्मीदवार को अपने आदमी के रूप में और अन्य उम्मीदवारों को प्रतिद्वंद्वी या शायद दुश्मन के रूप में देखते हैं। जब मतदाता स्वयं से प्रश्न पूछते हैं कि हम उन उम्मीदवारों से क्या उम्मीद करें, जो अवांछनीय कार्यों में लिफ्त हैं तो हम बेहतर लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक कदम आगे बढ़ते हैं।

इस तरह की हिंसा केवल भारत में ही नहीं बल्कि कई तथाकथित विकसित देशों में भी होती है। असली डर जो फैलाया जा रहा है कि क्या होगा जब चुनाव संपन्न होने के बाद सीआरपीएफ के जवान वापस चले जाएंगे। क्या उम्मीदवारों के पालतू गुंडे बदला लेंगे? ऐसी अफवाहें हैं कि ईवीएम के द्वारा यह पता लगाया जा सकता है कि किसने किसको वोट किया है। इसलिए हम मूल सवाल पर लौटते हैं कि समस्या का समाधान क्या है? क्या हमारे पास और सुरक्षा के इंतजामात की दरकार है? क्या हमें ईवीएम पर पुनर्विचार करना चाहिए? क्या चुनाव आयोग को और सख्त होना चाहिए?

हालांकि इस समस्या से बचने के लिए एक और तरीका है। जो खुद को व्यवस्थित करने वाले लोगों के बारे में है। न केवल मुख्यधारा की मीडिया बल्कि सोशल मीडिया भी चुनाव संबंधी मुद्दों को लोगों के सामने लाने का एक ताकतवर माध्यम बन चुका है। यह स्वाभाविक रूप से अनियंत्रित तत्वों और उनके उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाता है। आज समाज को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। जब लोगों को गैर राजनीतिक तरीके से संगठित किया जाता है तो वे मजबूत होते हैं। आज हम हर जगह विभाजन देख रहे हैं। राजनीतिक दल विभाजित हैं। हम राज्य पुलिस पर भरोसा नहीं करते हैं और चुनाव कराने के लिए केंद्रीय बल तैनात करते हैं। मतदाता भी जाति और धार्मिक समूहों में विभाजित हैं।

मीडिया भी कभी-कभी पक्षपाती हो जाता है और ब्रेकिंग न्यूज पर केंद्रित रहता है। समाज का पुनर्गठित कौन करेगा? निश्चित रूप से राजनीतिक दल या अधिकारी तो नहीं। यह एक सामाजिक मुद्दा है और इससे समाज को निपटना होगा। ऐसा प्रयास समावेशी होना चाहिए न कि विभाजनकारी। यह गैर पक्षपातपूर्ण होना चाहिए। देश के विभिन्न हिस्सों में यह धीरे-धीरे हो रहा है। जब मतदाता सशक्त होंगे और हिंसा और काले धन को खारिज करेंगे तो हमें बेहतर चुनाव मिलेंगे। चूंकि अब सरकार और लोगों के बीच असंतोष है। उदाहरण के लिए, चुनाव ड्यूटी पर केवल सरकारी अधिकारी और पर्यवेक्षक हैं। हमें लोगों पर भरोसा नहीं है। अमेरिका सहित अन्य देशों में नागरिक समूह भी चुनाव पर्यवेक्षक होते हैं।

हमें नागरिकों की शक्ति का लाभ उठाने की आवश्यकता है। यह चुनौतियों के बिना संभव नहीं है। लेकिन अगर लोकतंत्र जनता का जनता द्वारा जनता के लिए है तो नागरिकों को केवल वोट डालने के अलावा अधिक बड़ी भूमिका निभानी होगी। अधिकारियों पर सब कुछ छोड़ने से काम नहीं चलेगा। हमें आगे आकर खुद कार्यभार संभालना होगा।

 चेयरमैन एवं संस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्स (एडीआर)


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