गर्म हो रही है सियासी जमीन, विधानसभा के बाद लोकसभा पर कांग्रेस की नजर
कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में किसान कर्ज माफी के वचन पर जीत हासिल की थी।राजनीतिक पंडितों की मानें तो कांग्रेस का यह बड़ा दांव लोकसभा चुनाव में असरदार नहीं होगा।
आशीष व्यास, इंदौर। मध्य प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फिलहाल क्षेत्रीय मुद्दों और राष्ट्रीय बहस के बीच उलझा हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव में लोकप्रियता के पैमानों पर खरा उतरने का दावा करने वाली भाजपा की शिवराज सरकार थी और इस बार करीबी मुकाबले में जीत हासिल करने वाली कांग्रेस की कमलनाथ सरकार सत्ता पर काबिज है। यदि मुद्दों से बात आगे बढ़ाएं तो कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में किसान कर्ज माफी के वचन पर जीत हासिल की थी, लेकिन राजनीतिक पंडितों की मानें तो कांग्रेस का यह बड़ा दांव लोकसभा चुनाव में उसके लिए फिलहाल अधिक असरदार नहीं दिखाई दे रहा है।
कमलनाथ सरकार बनने के 77 दिन बाद भी कांग्रेस के दावे के मुताबिक सारे किसानों का दो लाख रुपये तक का कर्ज माफ नहीं हो पाया है, न ही अन्य वायदे पूरे हुए हैं। चौपट होती कानून-व्यवस्था ने भी कमलनाथ सरकार को विपक्ष के निशाने पर ला दिया है। अंतर केवल इतना है कि ताजा-ताजा विपक्ष में बैठी भाजपा, कांग्रेस की इन्हीं कमजोरियों के भरोसे अपनी नाव पार लगाने का प्रयास करती दिखाई दे रही है। हाल ही में भाजपा द्वारा प्रदेशभर में किया गया धिक्कार आंदोलन इसकी शुरुआत माना जा रहा है।
दरअसल विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत तो बढ़ा था, लेकिन सीटें घट गई थीं। भाजपा अब इस कोशिश में है कि लोकसभा चुनाव में वह विधानसभा चुनाव का बदला ले। पार्टियों के सियासी प्रबंधन में भी अभी एक बड़ा अंतर देखा जा रहा है। पिछले चुनाव में, कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था, संगठन भी बदहाल था, लेकिन अब स्थितियां उलट हैं। विधानसभा चुनाव में जीत से उत्साहित कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता फिर दो-दो हाथ करने की तैयारी में हैं। दूसरी तरफ भाजपा के लिए पुराने रिकॉर्ड को भी दोहराना ही सबसे बड़ी चुनौती है।
मध्य प्रदेश के सियासी समीकरणों में इस बार जो कुछ नया दिखाई दे रहा है वह है 15 साल के शासन में जिस एंटी इनकंबेंसी को लेकर शिवराज सत्ता गंवाने का दाग झेल रहे हैं, उसी प्रदेश में अब कांग्रेस की सरकार भी 77 दिनों के शासन पर सफाई देती नजर आ रही है। कांग्रेस ने भले ही 83 वादे पूरे करने का दावा किया हो लेकिन जनता को इसका जमीनी अहसास अभी तो नहीं हो पा रहा है। उधर, ताबड़तोड़ तबादलों से इसे उद्योग में बदलने का आरोप और किसान कर्ज माफी को लेकर जगह-जगह हो रहे आंदोलन ने चुनावी जमीन को धीरे-धीरे गर्म करना शुरू कर दिया है।
इन सबके बीच, पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार के आक्रामक और स्पष्ट रवैए से लंबे समय बाद प्रदेश के शहरी मतदाताओं में भी राष्ट्रवाद की एक लहर देखी गई है। वैसे भी मध्य प्रदेश का शहरी मतदाता भाजपा का परंपरागत वोट माना जाता है। उधर, कांग्रेस को फिलहाल उन्हीं इलाकों से सबसे ज्यादा उम्मीद है जहां पिछले विधानसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतर रहा था। शायद इसीलिए पार्टी धार, झाबुआ-रतलाम, खरगोन, खंडवा, छिंदवाड़ा, मंडला, बालाघाट, जबलपुर, भिंड, मुरैना, ग्वालियर,राजगढ़ और गुना जैसे लोकसभा क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान दे रही है।
यदि सियासी नजरिए से भी समझने का प्रयास करें तो इसमें अधिकांश इलाका वह है, जहां आदिवासी मतदाताओं की बहुलता है या पुराने दौर में इस इलाके में कांग्रेस की विचारधारा का प्रभाव देखा जा चुका है। प्रदेश में मतदान का पहला चरण शुरू होने में करीब 50 दिन बाकी हैं इसलिए चुनावी माहौल गर्म होने में अभी थोड़ा समय लगेगा। लेकिन, मैदान में कई नए चेहरे उतारने की चर्चा से दोनों ही दलों के पुराने नेताओं में गजब की बेचैनी देखी जा रही है।