Lok Sabha Election 2019: भारतीय जनता पार्टी के 39 साल और...मुद्दा राष्ट्रवाद का
भारत के इस प्रमुख राजनीतिक दल के अभ्युदय के सापेक्ष इसके मूल सिद्धांतों विचारों और आदर्शों को भलीभांति समझ लेना मतदाता के लिए आवश्यक है।
अतुल पटैरिया, नई दिल्ली। आज यानी 6 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी अपना 39वां स्थापना दिवस मनाने जा रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का यह प्रमुख राजनीतिक दल देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के मामले में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी और प्राथमिक सदस्यता के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा दल है।
देश के 17वें लोकसभा चुनावों में भाजपा बतौर सत्ताधारी दल मैदान में है। दलीय प्रणाली हमारे लोकतंत्र का आधार है। स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियाद राजनीतिक दलों के आचार विचार और सिद्धांतों पर निर्भर करती है, जिनके आकलन से ही मतदाता नेतृत्व का चयन करता है। लिहाजा भारत के इस प्रमुख राजनीतिक दल के अभ्युदय के सापेक्ष इसके मूल सिद्धांतों, विचारों और आदर्शों को भलीभांति समझ लेना मतदाता के लिए आवश्यक है।
इतिहास भाजपा का
भारतीय जनता पार्टी का मूल श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा 1951 में निर्मित भारतीय जनसंघ है। 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद जनता पार्टी के निर्माण हेतु जनसंघ अन्य दलों के साथ विलय हो गया। इससे 1977 में पदस्थ कांग्रेस पार्टी को 1977 के आम चुनावों में हराना संभव हुआ। तीन वर्षों तक सरकार चलाने के बाद 1980 में जनता पार्टी विघटित हो गई और पूर्व जनसंघ के पदचिन्हों को पुनर्संयोजित करते हुये भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किया गया। 1925 में डॉ. हेडगवार ने राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) की स्थापाना की थी। आरएसएस को बीजेपी का मातृ संगठन माना जाता है। बीजेपी के अधिकांश बड़े नेता आरएसएस से जुड़े हैं।
क्या आप खुद को राष्ट्रवादी या देशभक्त मानते हैं?
जवाब देने से पहले यदि पलभर को भी सोचना पड़ जाए तो आपको अवश्य सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ? यह भारतीय राजनीति में चल रहे द्वंद्व का परिणाम है। जिम्मा भाजपा के सर मढ़ दिया गया है। 2014 के आम चुनावों के दौरान देशभक्ति और राष्ट्रवाद का विषय मुद्दा बना था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तब भाजपा पर हमला करते हुए कहा था- कुछ लोग देशभक्ति का ढोल पीट रहे हैं। भगवा पार्टी सिर्फ किसी भी तरह प्रधानमंत्री पद को हथियाना चाहती है। यह चुनाव सामाजिक योजनाओं और सुधारों के संदर्भ में नहीं बल्कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बचाने के लिए है...। निशाना राष्ट्रवाद पर था। भाजपा ने वह चुनाव एकतरफा अंदाज में जीता। अब 2019 के चुनाव में कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने कह रही हैं- भाजपा राजनीतिक बहस को मुद्दों से भटकाने का एजेंडा चला रही है। लिहाजा जागरूकता और सही निर्णय ही जनता के लिए सबसे बड़ी देशभक्ति होनी चाहिए...।
इधर, भाजपा के 39वें स्थापना दिवस की पूर्वसंध्या पर पार्टी के संस्थापक सदस्य लालकृष्ण आडवाणी ने ब्लॉग लिखा- भारतीय लोकतंत्र का सार विविधता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान है। अपनी स्थापना के बाद से भाजपा ने इसका ध्यान रखा और अपने राजनीतिक विरोधियों या हमारी विचारधारा से असहमत लोगों से वैरभाव नहीं रखा। सत्य, राष्ट्रनिष्ठा और लोकतंत्र ने पार्टी के संघर्ष से भरे विकास को निर्देशित किया। इन सभी मूल्यों के योग को ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहते हैं, जिस पर मेरी पार्टी अडिग रही...।
दरअसल, राष्ट्रवाद एक सिद्धांत है। विविध कालों में इसके विविध रूपों को लेकर व्यापक बहस होती रही है। क्या है राष्ट्रवाद? क्या है इसकी परिभाषा? भारत में राष्ट्रवाद के क्या मायने हैं? स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात भारत में राष्ट्रवाद की क्या भूमिका रही? क्या महात्मा गांधी राष्ट्रवादी नहीं थे? क्या गांधी और दीनदयाल उपाध्याय के राष्ट्रवाद में फर्क है? क्या सवासौ करोड़ भारतीय राष्ट्रवादी नहीं हैं? क्या राष्ट्रवाद और देशभक्ति दो अलग अलग बातें हैं? और क्या भाजपा का राष्ट्रवाद कुछ अलग है? ये सभी ऐसे सवाल हैं, जिनका स्पष्ट उत्तर हर मतदाता के पास होना चाहिए।
स्पष्टता इसलिए क्योंकि आज देशभक्ति और राष्ट्रवाद की सहज अवधारणा राजनीतिक जटिलताओं के बीच उलझ कर रह गई है। बड़ा सवाल यह कि क्या आज भारत में देशभक्ति और राष्ट्रवाद प्रासंगिक नहीं रहे हैं? राष्ट्रवाद के बूते देश को आजादी दिलाने वाली कांगे्रस के लिए और दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को आत्मसात करने वाली भाजपा के लिए, क्या राष्ट्रवाद की परिभाषाएं अलग अलग हैं?
राजनीतिक पूर्वाग्रह से कहीं परे इस सवाल का यथोचित जवाब खुद कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिया था। 7 जून 2018 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर मुख्यालय पर हुए समारोह में मुखर्जी ने लंबा भाषण दिया था। कहा था- आज मैं यहां भारत के संदर्भ में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्तिको लेकर अपनी समझ आपके बीच रखने आया हूं। ये तीनों ही अवधारणाएं इस कदर एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं कि किसी भी एक अवधारणा पर अलग से बात करना बहुत मुश्किल है। हम इन तीनों शब्दों के डिक्शनरी में दिए गए अर्थों से शुरुआत करते हैं।
एक खास राज्य और क्षेत्र में रहने वाले लोगों का एक बड़ा समूह जो समान संस्कृति, भाषा और इतिहास साझा करता है, उसे राष्ट्र के तौर पर परिभाषित किया गया है। अपने राष्ट्र से जुड़ी हुई पहचान और उसके हितों का समर्थन करने को राष्ट्रवाद कहा गया है। देशभक्तिको अपने देश के प्रति समर्पण और जबरदस्त समर्थन के तौर पर परिभाषित किया गया है। संस्कृति, आस्था और भाषा की बहुलता ही भारत को विशेष बनाती है। सहिष्णुता हमारी ताकत है। हम अपनी बहुलता को स्वीकार्य करते हैं और उसका सम्मान करते हैं।
हम अपनी विविधता का उत्सव मनाते हैं। ये सदियों से हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा रही हैं। हमारी राष्ट्रीयता को किसी भी एक मत और धर्म की पहचान, क्षेत्र, विद्वेष और असहिष्णुता के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश सिर्फ हमारी राष्ट्रीय पहचान को कमजोर करने वाली होगी। जितनी भिन्नताएं दिख सकती हैं हमें, वो सब सिर्फ सतह पर है, अंदर से हम साझा इतिहास, साहित्य और सभ्यता के साथ एक अनूठी सांस्कृतिक इकाई के तौर पर मौजूद हैं...। गांधीजी ने भी कहा है कि भारतीय राष्ट्रवाद न तो विशिष्ट है, न आक्रामक है और न ही विध्वंसकारी है। इसी राष्ट्रवाद को पंडित जवाहर लाल नेहरूने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विस्तार से बताया है। उन्होंने लिखा, एक साझा राष्ट्रीय दृष्टि विकसित हो जिसमें दूसरे चीजें गौण हों...।
दरअसल, देशभक्ति और राष्ट्रवाद को हिन्दुत्व के नाम पर बदनाम किया जा रहा है। निर्णय जनता को करना है। विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में प्रकटीकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय विचार है। यदि इस तथ्य को हमने ह्दयंगम कर लिया तो विभिन्नताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति या संस्कृति का द्योतक नहीं वरन प्रवृत्ति का द्योतक है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय, एकात्म मानववाद के प्रर्वतक भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण ‘संवैधानिक देशभक्ति’ से होता है, जिसमें हमारी साझी विरासत और विविधता के प्रति प्रशंसा का भाव शामिल है। भारत की राष्ट्रीयता किसी एक भाषा, एक धर्म और एक दुश्मन पर आधारित नहीं है। यह 1.3 अरब लोगों का ‘शाश्वत सर्वहितवाद’ है।
प्रणव मुखर्जी, पूर्व राष्ट्रपति
विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में प्रकटीकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय विचार है। यदि इस तथ्य को हमने ह्दयंगम कर लिया तो विभिन्नताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति या संस्कृति का द्योतक नहीं वरन प्रवृत्ति का द्योतक है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय, एकात्म मानववाद के प्रर्वतक