Bihar Vidhan Sabha Election 2020: चुनाव में गुलजार रहने वाला पूर्व विधानसभा अध्यक्ष का यह बंगला आज खामोश
बरारी रोड स्थित शिवचंद्र बाबू (शिवचंद्र झा) के बंगले पर सन्नाटा पसरा है। इसी बंग्ले पर सुबह-सुबह लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। ये सिलसिला एक दशक पूर्व तक जारी था। 2009 में शिवचंद्र बाबू के निधन के बाद से यह हवेली वीरान पड़ गई है।
भागलपुर [अभिषेक कुमार]। जैसे-जैसे मतदान के दिन नजदीक आ रहे हैं चुनावी सरगर्मी बढ़ती जा रही है। गांवों, बाजारों से लेकर चौपालों और चाय की दुकानों पर चुनावी चर्चा तेज हो गई है। लेकिन, बरारी रोड स्थित शिवचंद्र बाबू (शिवचंद्र झा) के बंगले पर सन्नाटा पसरा है। बंगले पर एक चौकी और दो कुर्सियों के अलावे शिवचंद्र बाबू की एक तस्वीर रखी है। करीब चार दशक से इस हवेली की देखरेख कर रहे कैलाश बताते हैं कि पहले इसी बंग्ले पर सुबह-सुबह लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। ये सिलसिला एक दशक पूर्व तक जारी था। 2009 में शिवचंद्र बाबू के निधन के बाद से यह हवेली वीरान पड़ गई है। कभी-कभी उनके स्वजन यहां देखरेख के लिए आते हैं।
दरअसल, बांका में जन्मे और भागलपुर से राजनीतिक सफर शुरू करने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र बाबू को लोग आज भी मूल्यों की राजनीति और आकाट्य तर्कों के लिए याद करते हैं। 1968 में वह पहली बार भागलपुर शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद सदस्य चुने गए। इस पद पर वह लगातार दो बार विजयी रहे। 1980 में वह कांग्रेस के टिकट पर भागलपुर से विधायक रहे। इसके बाद 1985 में वह फिर से यहां से चुनाव जीते और विधानसभा के अध्यक्ष चुने गए। 1989 तक वे अध्यक्ष पद पर रहे। अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने कई ऐसे निर्णय लिए जिसे आज भी याद किया जाता है। 1990 में वह बांका से चुनाव लड़े लेकिन हार गए। इसके बाद उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया।
ग्रामीण अर्थशास्त्र के जाने-माने विद्वानों में होती थी गिनती
शिवचंद्र झा ने पटना विश्वविद्यालय से एमए की पढ़ाई 1954 में पूरी की। वे उस वक्त गोल्ड मेडलिस्ट थे। ग्रामीण अर्थशास्त्र के जाने-माने विद्वानों में उनकी गिनती होती थी। प्रख्यात अर्थशास्त्री डीडी गुरु उनके शिष्य थे। उनके शिष्य और तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के ग्रामीण अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. उग्र मोहन झा बताते हैं कि एमए का परिणाम घोषित होने के पहले ही शिवचंद्र झा ने सेंट कोलंबस कॉलेज हजारीबाग में शिक्षक पद पर योगदान दे दिया था। वहां वे तीन साल तक कार्यरत रहे। 1957 में वह भागलपुर लौट आए और प्लानिंग कमीशन से जुड़ गए। 1960 में भागलपुर विश्वविद्यालय की स्थापना में उनका अहम योगदान रहा। इस दौरान सिंडिकेट की बैठक में उनके बोलने का सभी सदस्य इंतजार किया करते थे।