[कैप्टन आर. विक्रम सिंह]। देश का विभाजन एक अमानवीय त्रासदी थी। वह अपने साथ भारत का दुर्भाग्य लाई थी। इतिहास के इस कलंकित अध्याय से सबक लेने के लिए ही 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने की पहल हुई। विभाजन के बाद बने पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों के साथ क्रूरता की पराकाष्ठा की गई। मंदिरों-गुरुद्वारों में शरणागतों को जलाकर मार डालती उन्मादी भीड़ का बोलबाला था। उत्पीड़न से मजबूर होकर पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। वहां से आने वाली शवों से अटी पड़ी रेलगाड़ियों की स्मृतियां आज भी सिहरन पैदा करती हैं। ऐसे भीषण सांप्रदायिक संघर्ष के बाद भी समस्या का समाधान नहीं हुआ। फिलहाल हम एक अस्थायी युद्धविराम में हैं।

इसका ही प्रमाण है कि पाकिस्तान और बाद में उससे अलग हुए बांग्लादेश र्में हिंदुओं की संख्या निरंतर घटने पर है। उनकी प्रताड़ना जारी है। आए दिन नाबालिग हिंदू बच्चियों का अपहरण कर उनका बलात मतांतरण कराकर निकाह करा दिया जाता है। अब तो इसे लेकर वहां सवाल भी नहीं किए जाते है। लगता है कि सारी संवेदनाएं मर गई हैं। हमारे देश की वोटपरस्त राजनीति ने भी कभी उनकी सुध लेना गवारा नहीं समझा।

जहां पाकिस्तान र्में हिंदुओं और सिखों पर अत्याचार हो रहे थे, वहीं भारत में महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू मुसलमानों की ढाल बने हुए थे। उन्होंने न केवल मुस्लिमों की रक्षा की, बल्कि उन्हें आश्वस्त कर भारत में बसे रहने के लिए प्रेरित भी किया। यहां नेहरू-लियाकत पैक्ट को नहीं भुलाया जा सकता, जिसमें यही शर्त थी कि दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके कल्याण के लिए प्रतिबद्ध होंगे।

वर्ष 1950 में हुए इस समझौते का भारत ने तो अक्षरश: पालन किया, लेकिन पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बढ़ते गए। समझौते का उलटा ही असर हुआ। इसने पाकिस्तान के हिंदुओं का भारत आना रोक दिया। इस कारण हिंदू और सिखों को या तो इस्लाम स्वीकार करना पड़ा या फिर वे मौत के घाट उतार दिए गए। वहां जो आज बचे-खुचे हिंदू हैं, वे विश्व के सबसे प्रताड़ित समाजों में से एक हैं।

मोदी सरकार ने उपमहाद्वीप में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों की इसी पीड़ा को समझते हुए ही उन्हें देश में शरण देने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए बनाया। अफसोस यही कि देश के तमाम इलाकों में उसका विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया। उसमें शाहीन बाग जैसे प्रतीक स्थल बन गए। ऐसा प्रायोजित विरोध यही दर्शाता है कि 75 वर्षों में भारत का सांप्रदायिक परिदृश्य असंतुलन का शिकार बना हुआ है।

आखिर अंग्रेजों की बनाई उस नकली सरहद रेडक्लिफ लाइन के पार छूट गए हिंदू-सिखों का गुनाह क्या था? वे भी तो देश के वैसे ही नागरिक थे जैसे कि दिल्ली, लखनऊ और भोपाल आदि जगह रहने वाले भारतीय। उस दौर में लाहौर में हिंदू, सिख बेटियां-महिलाएं जौहर कर रही थीं। लोग अपने हाथों से अपनी बेटियों को कत्ल करने पर मजबूर थे। वहीं दिल्ली में जश्न-ए-आजादी की तैयारी हो रही थी। नेहरू 'नियति से साक्षात्कार' वाले अपने मशहूर भाषण को अंतिम रूप देने में जुटे थे। गांधीजी कलकत्ता में जूझ रहे थे, जबकि कायदे से उन्हें लाहौर में होना चाहिए था। गांधीजी ने कलकत्ता को तो विभीषिका से बचा लिया, लेकिन पूर्वी बंगाल में हिंदुओं के दमन को न बचा सके। तब माउंटबेटन की सेना क्या कर रही थी? उसे सीमाओं पर तत्काल क्यों नहीं तैनात किया गया?

विभाजन का वह दौर इतना वीभत्स था कि राजधानियों से लेकर दूरदराज के गांव-कस्बों में भी शरणार्थियों का रेला आता-समाता रहा। उन्होंने यहां अपने जीवन की नई शुरुआत की। वे यूरोप से इजरायल आ रहे यहूदियों की तरह थे। वे पहाड़ों से लेकर जंगलों तक जाकर बसे। तराई के जंगलों में उन्होंने खेत बनाए। सड़कों के किनारे ठेलों, गुमटियों में कारोबार जमाया। फीनिक्स पक्षी की तरह राख से जिंदा होकर फिर उठ खड़े हुए। कांग्रेस की सरकार ने उन्हें उस समय बोझ समझा था। उन्हें ताने सुनाए जा रहे थे, जबकि उनकी यह दुर्गति उन्हीं नेताओं के कारण हुई थी।

असहयोग आंदोलन के दौरान खिलाफत आंदोलन के समर्थन से गांधीजी रातोंरात मुस्लिम समाज के नायक बन गए। उन्होंने जिन्ना को हाशिये पर धकेल दिया। संभव है कि यह उनका प्रछन्न लक्ष्य भी रहा, लेकिन इस पड़ाव ने राजनीतिक परिदृश्य पर सांप्रदायिकता की स्थायी आमद दर्ज करा दी। तुर्की में खलीफा की बहाली हमारे देश की समस्या नहीं थी। यहां तक कि अरब और ईरान जैसे देशों में भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। भारत में भी मौलवियों में इस विषय पर तमाम धार्मिक चर्चाएं चल रही थीं, लेकिन गांधीजी इस मुद्दे को हाशिये से उठाकर राजनीतिक परिदृश्य के केंद्र में ले आए।

यह भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक तुष्टीकरण का पहला प्रयोग था जो इतिहास के पड़ावों से गुजरता हुआ अंतत: विभाजन की ओर चला गया। देश में सांप्रदायिक दंगों का जो सिलसिला खिलाफत आंदोलन की असफलता की प्रतिक्रिया में 1921 के मोपला सांप्रदायिक नरसंहार से प्रारंभ हुआ था, वह लगातार होते दंगों से गुजरते हुए विभाजन की विभीषिका तक लाखों देशवासियों की बलि लेता गया। अहिंसक आंदोलनों की उर्वर भूमि ने दंगाइयों का काम आसान बना दिया था। भारत विभाजन के बाद भी वोट बैंक की राजनीति ने सांप्रदायिकता के माहौल को जिंदा बनाए रखा। दुर्भाग्य है कि इस सांप्रदायिक जिन्न का स्थायी समाधान करना हमारी राजनीति का लक्ष्य नहीं था।

विभाजन ने हमारी सीमाओं पर रेखाएं ही नहीं खींची, बल्कि देश के मानस पटल पर भी सांप्रदायिक विभाजन की एक स्थायी लकीर खींच दी है। गोरखा रेजीमेंट के कैप्टन एर्टंकस ने दंगों में लाहौर शहर की स्थिति का चित्रण किया है-वहां इतनी हत्याएं हुईं कि लाहौर का गटर खून से लाल हो गया था। कोई हिंदू, सिख घर नहीं था, जो जल न रहा हो। नदी-नहरों र्में हिंदू-सिखों की लाशें तैर रही थीं। इस विभीषिका ने बेहिसाब भारतीयों की बलि ले ली थी।

वहीं आजादी के बाद वोट बैंक की शक्ल में हमने अपने यहां सांप्रदायिक ब्लैकमेलिंग को स्थायी अभयदान दे दिया। यह हमारी मुख्य समस्या बनी हुई है। फिर भी सीएए जैसी उम्मीद की किरण भी दिखी है। इस कानूनी पहल ने सीमा पार से उन प्रताड़ित हिंदू-सिखों को ढांढ़स बंधाया है कि उनका मातृदेश उन्हें भूला नहीं, बल्कि उनके साथ खड़ा है। संभव है कि यह विभाजन की विभीषिका के घावों पर कुछ मरहम लगाए।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)