चुनावों के पहले राजनीतिक दलों में हलचल देखने को मिलती ही है, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के पहले कांग्रेसी नेताओं के बीच जैसी उठापटक देखने को मिल रही है वह अभूतपूर्व है। एक ओर जहां हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने टिकट बंटवारे से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी वहीं दूसरी ओर मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम पार्टी छोड़ने की कगार पर जाकर खड़े हो गए। इन दोनों ने अपने ही नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए।

अशोक तंवर ने इस्तीफा देने के पहले कांग्रेस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन किया तो संजय निरुपम ने संवाददाता सम्मेलन कर पार्टी को खुली चुनौती दी। इन दोनों नेताओं ने बागी तेवर दिखाने के साथ ही यह रेखांकित करने की भी कोशिश की कि उन्हें राहुल गांधी के करीबी होने के कारण किनारे किया गया। क्या वाकई ऐसा कुछ है? इस बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इससे हर कोई भलीभांति परिचित है कि कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेताओं और बुजुर्ग नेताओं के बीच एक अरसे से खींचतान जारी है।

युवा और बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं के बीच खींचतान की एक झलक तब मिली थी जब लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी की ओर से अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश की गई थी। उस दौरान जब पार्टी के युवा नेता राहुल गांधी के अध्यक्ष बने रहने पर जोर दे रहे थे तो बुजुर्ग नेता या तो मौन साधे थे या फिर विकल्प सुझा रहे थे। लंबे इंतजार के बाद राहुल का त्यागपत्र स्वीकृत तो हुआ, लेकिन अंतरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी का चयन करना बेहतर समझा गया। इससे यही संदेश निकला कि गांधी परिवार पार्टी पर अपनी पकड़ छोड़ने के लिए तैयार नहीं। इस संदेश की एक वजह प्रियंका गांधी वाड्रा का अपने पद पर कायम रहना भी था, जिन्हें लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस महासचिव बना दिया गया था।

जिस तरह यह स्पष्ट नहीं कि कांग्रेस को अगला पूर्णकालिक अध्यक्ष कब मिलेगा उसी तरह यह भी साफ नहीं कि पार्टी अपनी खोई हुई जमीन हासिल करने के लिए प्रयोग करना कब छोड़ेगी? यह ठीक नहीं कि जब देश को एक सशक्त विपक्ष की सख्त जरूरत है तब कांग्रेस असमंजस से बुरी तरह ग्रस्त है। इसमें संदेह है कि वह हरियाणा और महाराष्ट्र में कुछ हासिल कर सकेगी। इन राज्यों के साथ देश के अन्य हिस्सों में भी वह दयनीय दशा में है। अपनी इस स्थिति के लिए वह खुद के अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। वास्तव में उसका भला तब तक नहीं हो सकता जब तक वह नेतृत्व के सवाल को ईमानदारी से हल नहीं करती।