बजट सत्र के समापन के साथ 16वीं लोकसभा का कामकाजी सफर पूरा हुआ। इस लोकसभा का एक विशेष महत्व इसलिए है कि उसने 30 साल बाद बहुमत की सरकार देखी। बहुमत वाली सरकार होने के नाते मोदी सरकार से अपेक्षाएं बढ़ गई थीं। तमाम बाधाओं के बावजूद यह सरकार एक बड़ी हद तक लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में सफल रही और इसमें लोकसभा की एक महती भूमिका रही, लेकिन राज्यसभा का कामकाज देखें तो उत्साहित नहीं हुआ जा सकता। लोकसभा की उत्पादकता का प्रतिशत 83 प्रतिशत रहा। यह पिछली यानी 15वीं लोकसभा के मुकाबले तो अधिक रहा, लेकिन 14वीं लोकसभा के मुकाबले थोड़ा कम रहा। इस लोकसभा ने जहां 156 विधेयक पारित किए वहीं राज्यसभा में उनकी संख्या 118 ही रही।

जीएसटी पर विधेयक पारित होना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। इस विधेयक के दौरान हुई बहस ने भी एक नजीर पेश की, लेकिन अन्य विधेयकों और मसलों पर चर्चा के समय उदाहरण पेश करने वाला काम मुश्किल से ही हो सका। भले ही लोकसभा में कामकाज के आखिरी दिन पक्ष-विपक्ष के बीच सद्भाव देखने को मिला हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बीते करीब पांच साल में संसद के कई सत्रों का अच्छा-खासा समय राजनीतिक तनातनी की भेंट चढ़ गया। कई बार जिन मसलों को लेकर विपक्ष ने संसद की कार्यवाही ठप की वे मसले अगले सत्र में भुला दिए गए। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक बड़ी संख्या में सांसदों ने सदन में बहस करने के बजाय नारेबाजी और हंगामा करने में दिलचस्पी ली। इस सबसे जनता को यही संदेश गया कि संसद में बहस का स्तर गिरता जा रहा है।

राज्यसभा को न केवल वरिष्ठों का सदन कहा जाता है, बल्कि यह भी माना जाता है कि इस सदन के सदस्य दलगत राजनीति से परे हटकर कहीं अधिक नीर-क्षीर ढंग से विचार-विमर्श करते हैं, लेकिन इस बार इसका उलटा देखने को मिला। राज्यसभा में लोकसभा के मुकाबले कहीं अधिक हंगामा तो हुआ ही, यह भी प्रदर्शित किया गया मानों जनता ने बहुमत की सरकार चुनकर कोई गलती कर दी है और उस गलती को ठीक करने की जिम्मेदारी इस सदन पर आ गई है। ऐसे रवैये के जरिये राज्यसभा एक तरह से सत्तारूढ़ दल के शासन करने के अधिकार को चुनौती देती ही दिखी। जाहिर है इससे मोदी सरकार अपने एजेंडे के कई काम पूरे नहीं कर सकी। हालांकि राज्यसभा की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल उठे, लेकिन उन पर विचार करने से इन्कार ही किया गया।

लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष के बीच मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संसद इन मतभेदों की बंधक बन जाए। आखिर इसका क्या मतलब कि राज्यसभा लोकसभा से पारित विधेयकों पर बहस करने से ही इन्कार कर दे? इस पर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि 16वीं लोकसभा का कामकाज खत्म होने के मौके पर पक्ष-विपक्ष अपने गिले-शिकवे दूर करते दिखा, क्योंकि इस सदन से और भी बहुत कुछ अपेक्षित था। अच्छा हो कि सभी राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि सूचना-संचार तकनीक के इस युग में संसद और अधिक प्रभावी कैसे बने?