प्रस्तावित नई शिक्षा नीति को लेकर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रियता यह उम्मीद जगाती है कि यह नीति जल्द सामने आएगी। ऐसा होना समय की मांग भी है, क्योंकि वायदे के अनुसार नई शिक्षा नीति मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ही आ जानी चाहिए थी। कम से कम अब तो यह सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि देर से आ रही शिक्षा नीति दुरुस्त भी हो। वास्तव में आवश्यक केवल यह नहीं है कि नई शिक्षा नीति यथाशीघ्र सामने आए, बल्कि यह भी है कि ऐसी तैयारी की जाए जिससे उस पर अमल का काम तेजी के साथ हो सके। नई शिक्षा नीति से अपेक्षाएं इसलिए बहुत बढ़ गई हैं, क्योंकि एक तो वह तीन दशक बाद आ रही है और दूसरे, हर कोई शिक्षा के ढांचे में व्यापक बदलाव के लिए प्रतीक्षारत है। यह बदलाव प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर तो अपेक्षित है ही, उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा के स्तर पर भी है। यह ठीक नहीं कि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा में रटने और ज्यादा से ज्यादा अंक लाने पर जोर है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य अधिक अंकों से परीक्षा पास करना भर रह गया है। इसका कोई औचित्य नहीं कि शिक्षा परीक्षा का पर्याय बनकर रह जाए। शिक्षा तो वह है जो छात्रों में जानने एवं सीखने की सामर्थ्य बढ़ाए और बेहतर व्यक्तित्व का निर्माण करे। दुर्भाग्य से यह काम हमारी उच्च शिक्षा भी नहीं कर पा रही है।

हमारे अधिकांश विश्वविद्यालय येन-केन-प्रकारेण डिग्री हासिल करने का जरिया बनकर रह गए हैं। इससे भी खराब बात यह है कि उनमें पठन-पाठन का माहौल दिन-प्रतिदिन बिगड़ता जा रहा है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा के केंद्रों से ऐसे युवा अधिक निकल रहे हैं जो समाज एवं राष्ट्र निर्माण में अपेक्षित सहयोग दे पाने में असमर्थ हैं। इसी कारण उद्योग-व्यापार जगत से संबंधित संगठन एक अर्से से यह कह रहे हैं कि उन्हें जैसे युवाओं की जरूरत है वैसे उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। इस स्थिति का मूल कारण है अप्रासंगिक-अनुपयोगी पाठ्यक्रम और स्तरहीन शोध। उच्च शिक्षा केंद्रों में हो रहे शोध के स्तर में केवल सुधार ही नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप भी होना चाहिए। अभी तो ऐसा लगता है कि शोध के नाम पर केवल खानापूरी हो रही है। स्तरहीन शोध केवल शिक्षा व्यवस्था के साथ ही नहीं, एक तरह से समाज और देश के साथ किया जाने वाला छल हैं। इसे देखते हुए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि नई शिक्षा नीति में ऐसे उपाय हों जो शैक्षिक ढांचे में आमूलचूल बदलाव ला सकें।