समान नागरिक संहिता को लेकर जारी बहस के बीच ऐसे स्वर फिर से खूब उभर रहे हैं, जो इस या उस बहाने ऐसी किसी संहिता के निर्माण को अनावश्यक बता रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं। दशकों से यही होता चला आ रहा है। जब भी समान नागरिक संहिता को लेकर कोई पहल होती है अथवा उसके निर्माण की आवश्यकता जताई जाती है, तब कुछ दल, खास सोच वाले बुद्धिजीवी और इंडियन मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड जैसे संगठन कुतर्को और काल्पनिक भय के साथ उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। इन दिनों भी ऐसा ही हो रहा है।

कोई यह कह रहा है कि समान नागरिक संहिता का निर्माण लोगों के धार्मिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा तो कोई ऐसे बयान दे रहा है कि यह महंगाई, बेरोजगारी आदि से लोगों का ध्यान बंटाने की कोशिश है। क्या इससे बेतुकी बात और कोई हो सकती है? क्या समान नागरिक संहिता का निर्माण न करने से महंगाई और बेरोजगारी की समस्या का समाधान हो जाएगा? प्रश्न यह भी है कि महिलाओं को उनके अधिकार दिलाना और उन्हें अन्याय एवं शोषण से बचाना किसी के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कैसे कहा जा सकता है? क्या किसी पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश में धार्मिक मामलों के नाम पर मनमानी होने दी जा सकती है?

समान नागरिक संहिता को लेकर बेलगाम बयानबाजी होने का एक बड़ा कारण यह है कि उसके विरोधियों और यहां तक कि समर्थकों को भी यह नहीं पता कि वह कैसी होगी और उससे क्या बदलेगा? यही कारण है कि मनमाने बयान दिए जा रहे हैं। यह सिलसिला तब तक नहीं थमने वाला, जब तक समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा सामने नहीं लाया जाता। उचित यह होगा कि इस संहिता का कोई मसौदा तैयार कर उसे जनता के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत किया जाए, ताकि उस पर व्यापक बहस हो सके। गोवा में यह संहिता लागू है। उसके जरिये उसका एक नया मसौदा आसानी से तैयार किया जा सकता है। समान नागरिक संहिता को लेकर गंभीरता प्रदर्शित कर रहे सत्तारूढ़ लोगों के लिए यह आवश्यक है कि सबसे पहले वे उसका मसौदा सामने लाएं। यह जानना दयनीय है कि 21वें विधि आयोग को समान नागरिक संहिता से जुड़े प्रविधानों का विस्तृत अध्ययन करने का काम सौंपा गया था, लेकिन यह काम किए गए बगैर उसका कार्यकाल खत्म हो गया। इसके बाद कहा गया कि 22वें विधि आयोग को यह जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है, लेकिन कोई नहीं जानता ऐसा कब होगा?