तत्काल तीन तलाक संबंधी विधेयक पर राज्यसभा की मुहर लगना समाज सुधार की दिशा में एक बड़ी पहल है। अच्छा होता कि विपक्ष इस विधेयक के विरोध पर नहीं अड़ता और मुस्लिम समाज को यह संदेश देने में भागीदार बनता कि इस कुप्रथा को खत्म करने का समय आ गया है। क्या इससे अजीब बात और कोई हो सकती है कि कई विपक्षी दलों ने मुस्लिम समाज के उन नेताओं के साथ खड़े होना पंसद किया जो यह तर्क दे रहे थे कि तत्काल तीन तलाक की प्रथा गलत तो है, लेकिन उसे खत्म करने की पहल नहीं होनी चाहिए?

तत्काल तीन तलाक की कुप्रथा उन सामाजिक बुराइयों में से है जो महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक साबित करती हैै। क्या ऐसी कोई प्रथा धर्मसम्मत कही जा सकती है जो पति को पत्नी को एक झटके में छोड़ने का अधिकार देती हो? तत्काल तीन तलाक की बुराई के चलन में होने के कारण मुस्लिम महिलाएं अपने वैवाहिक भविष्य को लेकर आशंका से घिरी रहती थीं। इससे भी खराब बात यह थी कि जब उन्हें एक झटके में तीन तलाक दे दिया जाता था तो वे एक तरह से सड़क पर आ जाती थीं। इस हालत में उन्हें मुश्किल से ही कोई मदद मिलती थी।

यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि मुस्लिम नेताओं और धर्मगुरुओं ने अपने समाज की महिलाओं के साथ खड़े होने के बजाय तत्काल तीन तलाक का समर्थन करना बेहतर समझा। इस रवैये को देखते हुए यह आवश्यक हो गया था कि तत्काल तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाया जाए। इसकी जरूरत इसलिए और बढ़ गई थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तत्काल तीन तलाक को अमान्य करार दिए जाने के बाद भी इस तरह के तलाक का सिलसिला कायम था। यह एक तरह से सुप्रीम कोर्ट को दी जाने वाली सीधी चुनौती ही थी।

एक झटके में तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाने के खिलाफ तरह-तरह के तर्क देने वाले जानबूझकर इसकी अनदेखी ही कर रहे थे कि दहेज की मांग करना भी दंडनीय अपराध है। जब समाज सामाजिक बुराइयों को खत्म करने में सहयोग देने से इन्कार करे तब फिर कानूनी उपायों का सहारा लेना जरूरी हो जाता है।

यह उम्मीद की जाती है कि मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक के कानून बन जाने के बाद तत्काल तीन तलाक के मामले थमेंगे। ऐसा हो, इसके लिए मुस्लिम युवाओं को आगे आना चाहिए, क्योंकि कोई समाज तभी आगे बढ़ता है जब उसकी महिलाओं को मान-सम्मान मिलता है। अब जब मुस्लिम महिलाएं भी अधिकार संपन्न होने जा रही हैैं तब फिर यह जरूरी हो जाता है कि समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ा जाए।

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