प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध के फैसले के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि उसके बढ़ते दामों पर लगाम लगेगी, लेकिन यह रातों-रात नहीं हो सकता। प्याज के निर्यात पर तत्काल प्रभाव से पाबंदी का निर्णय इसलिए लेना पड़ा, क्योंकि घरेलू बाजार में उसकी उपलब्धता बढ़ाने के लिए उठाए गए कदम प्रभावी नहीं साबित हो रहे थे। सच तो यह है कि प्याज की किल्लत बढ़ती ही जा रही थी। कहीं-कहीं तो उसके दाम 70-80 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गए थे। ऐसा तब हुआ जब प्याज का न्यूनतम निर्यात मूल्य तय करने के साथ ही उसकी कालाबाजारी रोकने की कोशिश की जा रही थी।

सरकार को यह पता होना चाहिए कि एक बार किसी आवश्यक वस्तु की किल्लत पैदा हो जाए तो फिर उसकी कालाबाजारी रोकना मुश्किल होता है। सरकार और खासकर खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों को यह भी सामान्य जानकारी होनी चाहिए कि बारिश में प्याज की आपूर्ति प्रभावित होती ही है। समझना कठिन है कि वे यह अनुमान क्यों नहीं लगा सके कि पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष भी प्याज उत्पादक राज्यों में बारिश की वजह से उसकी आपूर्ति पर असर पड़ सकता है?

यह अच्छी बात नहीं कि केंद्र सरकार के पास प्याज का पर्याप्त भंडार होने के बावजूद उसके दाम बेलगाम हो गए। यह स्थिति यही बताती है कि हमारे नीति-नियंता किस तरह समय रहते सामान्य स्थितियों का अनुमान लगाने में नाकाम रहते हैं। इस नाकामी का कोई उपचार खोजा ही जाना चाहिए, क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब प्याज के बढ़े दाम सरकार के लिए सिरदर्द साबित हुए हों। हाल के समय में एक नहीं अनेक बार यह देखने को मिला है कि प्याज अथवा अन्य किसी आवश्यक उपभोक्ता सामग्री की किल्लत के कारण सरकार को परेशानी उठाने के साथ ही अपयश का भी सामना करना पड़ा। कई बार तो उसे राजनीतिक नुकसान भी झेलना पड़ा है।

यह आश्चर्यजनक है कि आवश्यक वस्तुओं की किल्लत से उपजी विपरीत परिस्थितियों से कई बार दो-चार होने के बावजूद सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े नौकरशाह ऐसे उपाय नहीं कर पाए हैं जिससे वही कारण बार-बार समस्या न बनने पाएं जो पहले भी बनते रहे हैं। प्याज के संकट ने जिस तरह सिर उठाया और उसकी किल्लत एक राजनीतिक मसला बनी उससे यही पता चलता है कि अतीत के अनुभवों से कोई सीख नहीं ली जा रही है। यदि प्याज की आपूर्ति के मामले में संभावित स्थितियों का वक्त रहते अनुमान लगाकर आवश्यक उपाय कर लिए गए होते तो शायद उसके निर्यात पर रोक लगाने की जरूरत नहीं पड़ती और इतनी हाय-तौबा भी नहीं मचती।