सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह राजद्रोह कानून के तहत मामले दर्ज करने के साथ ही इस तरह के लंबित मामलों की सुनवाई पर रोक लगा दी वह इसलिए अप्रत्याशित है, क्योंकि गत दिवस सरकार ने इस कानून की समीक्षा करने का वचन दिया था और इसके लिए तीन माह का समय मांगा था। यह कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन माह की प्रतीक्षा करना आवश्यक क्यों नहीं समझा? इस प्रश्न का उत्तर जो भी हो, कानून मंत्री किरण रिजिजू की इस टिप्पणी की अनदेखी नहीं की जा सकती कि सभी को लक्ष्मण रेखा का पालन करना चाहिए। इस टिप्पणी से यही ध्वनित होता है कि सुप्रीम कोर्ट की तत्परता सरकार को रास नहीं आई। उम्मीद की जाती है कि इस मामले में वैसा कुछ नहीं होगा जैसा कृषि कानूनों के मामले में हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाकर अपनी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन ही किया था। इस उल्लंघन के क्या नतीजे हुए, यह किसी से छिपा नहीं।

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों के जमाने में बना राजद्रोह संबंधी कानून एक लंबे समय से विवादों में है। इसकी एक बड़ी वजह इस कानून का मनमाना इस्तेमाल किया जाना है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल ने भी यह स्वीकार किया कि इस कानून के दुरुपयोग के मामले सामने आए हैं। यह भी देखा गया है कि कई बार इसका इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने केलिए किया जाता है। इसी के साथ तथ्य यह भी है कि ऐसा कोई कानून नहीं जिसका दुरुपयोग न हो सकता हो।

नि:संदेह केवल इसके आधार पर किसी कानून को खारिज नहीं किया जा सकता कि उसका मनमाना इस्तेमाल होता है। इसके बावजूद यह भी सही है कि जिन कानूनों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता हो उनकी समीक्षा की जानी चाहिए। समीक्षा केवल संबंधित कानून को खत्म करने के इरादे से नहीं, बल्कि इस उद्देश्य से भी होनी चाहिए कि क्या उसमें ऐसे कोई संशोधन किए जा सकते हैं जिससे उसका दुरुपयोग थमे और उस कानून के उद्देश्य की वास्तव में पूर्ति हो। पता नहीं राजद्रोह कानून की समीक्षा करते हुए सरकार किस नतीजे पर पहुंचेगी और फिर सुप्रीम कोर्ट क्या दृष्टिकोण अपनाएगा, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि राजद्रोह की राह पर चलने वालों के मन में कानून का भय होना ही चाहिए।