देश को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के गुनहगारों को फांसी देने के लिए चौथी बार डेथ वारंट जारी किया जाना स्वत: यह बता रहा है कि इसके पहले तीन बार ऐसे ही जो वारंट जारी किए गए वे निष्प्रभावी रहे। इसके चलते देश को यही संदेश गया कि न्याय में देर भी है और अंधेर भी। माना जा रहा है कि चौथा डेथ वारंट आखिरी साबित होगा, लेकिन दोषियों के वकील अभी भी कुछ कानूनी विकल्प होने का दावा कर रहे हैं।

पता नहीं उनके दावे में कितना दम है, लेकिन अगर किसी कारण फांसी फिर टली तो इससे न्यायिक व्यवस्था का और उपहास ही उड़ेगा। इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि जिस जघन्य मामले में दोषियों की सजा के अमल में तत्परता का परिचय देकर नजीर स्थापित की जानी चाहिए थी उसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ। न्याय वही है जो समय पर हो। न्याय का मतलब यह नहीं हो सकता कि सजा तो सुना दी जाए, लेकिन उसके अमल पर ध्यान न दिया जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया के दोषियों की फांसी की सजा पर 2017 में ही मुहर लगा दी थी, लेकिन इसके बाद की कार्रवाई कानून की भूलभुलैया में खो सी गई। इसके चलते जनमानस के बीच यह धारणा बनी कि सरकार की ढिलाई से दोषियों की सजा पर अमल नहीं हो पा रहा है। सच यह है कि देरी के लिए न्यायपालिका जिम्मेदार है।

अब जब न्यायपालिका ने यह अच्छी तरह देख-समझ लिया कि कानूनी तौर-तरीकों का किस तरह बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है तब फिर यह सुनिश्चित करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है कि कानूनी प्रक्रिया के छिद्रों को बंद किया जाए।

यह सही समय है कि न्यायपालिका न केवल अपनी खामियों को देखे, बल्कि उन्हें दूर करने के लिए सक्रिय भी हो। उसे इसका आभास होना ही चाहिए कि कुछ समय पहले हैदराबाद में दुष्कर्म और हत्या के आरोपियों को मुठभेड़ में मारे जाने की जो सराहना हुई थी उसकी एक बड़ी वजह न्याय की मंथर गति ही थी।

नि:संदेह न्याय का तकाजा यह कहता है कि आरोपितों को अपने बचाव के पर्याप्त अवसर दिए जाने चाहिए, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि अंतिम स्तर पर फैसला होने के बाद भी किसी मामले के दोषी अदालत-अदालत खेल कर न्याय का मजाक उड़ाएं? जब ऐसा होता है तो आम जनता के बीच केवल क्षोभ ही नहीं पैदा होता, बल्कि न्यायपालिका के प्रति उसका भरोसा भी टूटता है। साफ है कि इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिए कि हमारी न्याय प्रक्रिया सुस्त और जटिल होने के साथ ही ऐसी भी है कि उसका दुरुपयोग करना आसान है।