यह ठीक नहीं कि चुनाव के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े गंभीर मसलों पर भी राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हुए हैं। बीते कुछ दिनों से कांग्रेस और भाजपा के बीच सशस्त्र बलों संबंधी अधिनियम यानी अफस्पा को लेकर जो बयानबाजी हो रही है उससे बचा जाना चाहिए था। यह बयानबाजी इसीलिए शुरू हुई, क्योंकि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में यह वादा किया कि अगर वह सत्ता में आई तो इस कानून की समीक्षा करेगी और कुछ मामलों में सुरक्षा बलों को इस कानूनी कवच से बाहर किया जाएगा। समझना कठिन है कि कांग्रेस को अफस्पा में खामी अभी ही क्यों दिखी?

आखिर दस साल तक सत्ता में रहने के दौरान उसे इस कानून में कोई खामी क्यों नहीं दिखी या फिर वह यह कहना चाह रही है कि बीते पांच सालों में ऐसा कुछ हुआ है जिससे इस कानून में संशोधन-परिवर्तन आवश्यक हो गया है? अफस्पा आज का कानून नहीं है। इसे 1958 में तब बनाया गया था जब कांग्रेस के सामने विपक्ष की कहीं कोई गिनती नहीं होती थी। समस्या यह नहीं है कि कांग्रेस ने अफस्पा की समीक्षा की बात की। समस्या यह है कि वह यह कह रही है कि लोगों के लापता होने और प्रताड़ना एवं यौन हिंसा के मामलों में सुरक्षा बलों को अफस्पा के दायरे से बाहर किया जाएगा।

क्या इसका मतलब यह है कि कांग्रेस यह मान रही है कि सुरक्षा बल लोगों को प्रताड़ित करते हैं या फिर यौन हिंसा में लिप्त रहते हैं? क्या वह इस नतीजे पर उन आरोपों के आधार पर पहुंची है जो सुरक्षा बलों पर कभी-कभार लगते हैं? कम से कम कांग्रेस के नेताओं को तो यह अच्छे से पता होना चाहिए कि अक्सर इस तरह के आरोप सुरक्षा बलों को बदनाम करने और उनका मनोबल प्रभावित करने के लिए लगाए जाते है कहीं कांग्रेस उन मानवाधिकारवादियों से तो प्रभावित नहीं जो कश्मीर में सुरक्षा बलों की सख्ती को मुद्दा बनाते रहते हैं? यह वही मानवाधिकारवादी हैं जो घाटी में पत्थरबाजों के गिरोहों और उन्हें मिल रहे राजनीतिक संरक्षण पर कुछ नहीं कहते। इस पर हैरत नहीं कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में अफस्पा की समीक्षा के वादे का घाटी के नेताओं ने स्वागत किया।

अच्छा होता कि कांग्रेस केवल यहीं तक सीमित रहती कि वह सत्ता में आने पर अफस्पा की समीक्षा करेगी। किसी भी कानून की समीक्षा करने में हर्ज नहीं। सच तो यह है कि समय के साथ पुराने कानूनों की समीक्षा होनी ही चाहिए, लेकिन यह ध्यान रहे कि अफस्पा जैसे कानूनों की समीक्षा चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता। इसी के साथ यह भी ध्यान रहे कि अगर सेना को अशांत क्षेत्रों में तैनात करना है तो उसे कुछ विशेष अधिकार देने ही होंगे। ये अधिकार क्या होने चाहिए, इस पर सैन्य अधिकारियों के दृष्टिकोण को सबसे अधिक महत्व देना होगा। यह अजीब है कि कांग्रेस ने कुछ खास मामलों को अफस्पा से बाहर करने की बात तो कह दी, लेकिन इस बारे में सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी डीएस हुड्डा की राय लेना जरूरी नहीं समझा जिन्होंने उसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा पर एक विस्तृत दृष्टिकोण पत्र तैयार किया था।