कुछ किसान संगठनों की ओर से कृषि कानूनों के विरोध से उपजे गतिरोध को तोड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों के अमल पर रोक लगाने की जो पहल की, उसके सकारात्मक नतीजे निकलने के आसार कम ही हैं। इसका कारण किसान नेताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित उस चार सदस्यीय समिति को खारिज किया जाना है, जिसे इन कानूनों की समीक्षा का दायित्व सौंपा गया है। किसान नेताओं ने इस समिति के समक्ष अपनी बात रखने से तो इन्कार किया ही, उसे सरकार समर्थक भी करार दिया। यह किसान नेताओं के अड़ियल रवैये का एक और प्रमाण ही नहीं, एक तरह से सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना भी है। किसान नेता यह हठधर्मिता तब दिखा रहे हैं, जब सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगाने का फैसला उन्हें आश्वस्त करने के लिए किया। कायदे से तो ऐसे किसी फैसले से बचा जाना चाहिए था, क्योंकि किसी कानून की वैधानिकता की जांच-परख किए बगैर उसके अमल पर रोक लगाने का फैसला सवाल खड़े करने वाला है। इस तरह के फैसले परंपरा नहीं बनने चाहिए, अन्यथा शासन करने वालों की समस्याएं बढ़ेंगी।

सुप्रीम कोर्ट को इसका आभास होना चाहिए था कि किसान नेता यह चाह रहे हैं कि सब कुछ उनके मन मुताबिक हो। अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट समाधान की पहल करने के पहले किसान नेताओं के हठ से परिचित होने के साथ इससे भी अवगत होता कि जैसी समिति का गठन उसने किया, वैसी ही सरकार भी गठित करने को तैयार थी। किसान नेताओं के रवैये से यह साफ है कि वे किसानों की समस्याओं का हल चाहने के बजाय अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करना चाहते हैं। इसी के साथ यह भी स्पष्ट है कि उनकी आड़ लेकर कांग्रेस एवं वाम दल अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाह रहे हैं। इसकी पुष्टि इससे होती है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित समिति पर किसान नेताओं और कांग्रेसी नेताओं की आपत्ति के सुर एक जैसे हैं। यह समानता तो यही इंगित करती है कि किसानों को एक राजनीतिक एजेंडे के तहत उकसाया गया है। बात केवल इतनी ही नहीं कि किसान नेता किसी राजनीतिक उद्देश्य के तहत दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। बात यह भी है कि उनके बीच अवांछित तत्व घुसपैठ करते हुए दिख रहे हैं। अटॉर्नी जनरल के अनुसार किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी तत्व मदद कर रहे हैं। उचित होगा कि इससे संबंधित जो हलफनामा पेश किया जाना है, उस पर सुप्रीम कोर्ट गंभीरता से ध्यान दे। इसके साथ ही वह यह भी देखे कि क्या कारण है कि किसान आंदोलन में पंजाब के किसानों का दबदबा है?