भीड़ के हिंसक व्यवहार के जैसे भयावह मामले सामने आ रहे हैैं उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर हैरानी नहीं कि सरकार इसके लिए अलग से कानून बनाने पर विचार करे। बेहतर हो कि यह काम संसद के इसी सत्र में किया जाए। यह ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला कायम हो गया। यह मामला राजनीतिक बढ़त लेने का नहीं, बल्कि एक स्वर से यह संदेश देने का है कि भीड़ की अराजकता स्वीकार नहीं।

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने भीड़ की हिंसा पर रोक लगाने के लिए कुछ दिशानिर्देश भी जारी किए। जब तक भीड़ की हिंसा संबंधी कानून नहीं बनता तब तक केंद्र और राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के पालन के प्रति तत्परता दिखानी चाहिए। यह काम इसलिए पूरी गंभीरता के साथ होना चाहिए, क्योंकि भीड़ की हिंसा के प्रकरण दुनिया में भारत की बदनामी करा रहे हैैं। सभ्य समाज में भीड़ की हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। यह शुभ संकेत नहीं कि जब ऐसे मामले थमने चाहिए तब वे बढ़ते हुए दिख रहे हैैं। नि:संदेह भीड़ की अराजकता के मामले में सोशल मीडिया का इस्तेमाल एक नई समस्या बनकर उभरा है, लेकिन वाट्सएप सरीखे माध्यमों को दोष देकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जा सकती। समस्या की जड़ तक जाने और उसे दूर करने की जरूरत है। 

अपने देश में भीड़ की हिंसा के मामले नए नहीं हैैं। जब कभी कोई संदिग्ध भीड़ के हत्थे चढ़ जाता है तो आम तौर पर उसकी शामत आ जाती है। कई बार भीड़ तुरंत न्याय करने लग जाती है। भीड़ का यह कथित न्याय अक्सर बर्बर रूप में सामने आता है। हाल के समय में पहले गोरक्षा के नाम पर संदिग्ध या फिर निर्दोष लोगों को निशाना बनाया गया फिर बच्चा चोरों को पकड़ने के नाम पर। अज्ञानता, अफवाह के साथ शरारत और वैमनस्य भी इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है।

आम तौर पर भीड़ की हिंसा के मामलों में लोगों को उकसाने और बरगलाने वालों की पहचान मुश्किल से ही हो पाती है। एक हकीकत यह भी है कि लोग दोषी की पहचान करने अथवा उसके खिलाफ गवाही देने के लिए सामने नहीं आते। नतीजा यह होता है कि ज्यादातर मामलों में दोषी सजा से बच जाते हैैं। जब ऐसा होता है तो जाने-अनजाने उन अराजक तत्वों को बल मिलता है जो कानून हाथ में लेने को आमादा रहते हैैं।

किसी संदिग्ध को दोषी मानकर उसे तुरंत सजा देने की प्रवृत्ति के मूल में कानून के शासन के प्रति उपेक्षा भाव तो है ही, लचर कानून एवं व्यवस्था भी है। भीड़ की हिंसा के कई मामलों में यह सामने आया है कि आपराधिक घटनाओं से परेशान लोग पुलिस से मदद की उम्मीद ही छोड़ चुके थे।

स्पष्ट है कि भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून बनाने के साथ ही कुछ और उपाय भी करने होंगे और सबसे प्रभावी उपाय यह संदेश देना है कि किसी को कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं और जो भी ऐसा करेगा वह कठोर दंड का भागीदार बनेगा।