सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में दाखिल की गईं सभी पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज करके उन लोगों को हतोत्साहित करने का ही काम किया है जो निहित स्वार्थों अथवा संकीर्ण राजनीतिक कारणों से इस संवेदनशील मसले को जीवित रखना चाह रहे थे।

इस इरादे का संकेत इससे मिलता है कि सुप्रीम कोर्ट ने सभी 18 पुनर्विचार याचिकाओं की सुनवाई करते समय यह पाया कि उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिस पर नए सिरे से विचार किया जा सकता। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पुनर्विचार याचिका दायर करने का काम उन लोगों ने भी किया जो मूल मामले में याची ही नहीं थे।

यदि किसी मामले में मूल वादकारियों की तुलना में पुनर्विचार याचिकाएं कहीं अधिक लोगों द्वारा दाखिल की जाएं तो इससे यही पता चलता है कि इस देश में किस तरह कुछ लोग अदालतों के सहारे अपनी राजनीतिक दुकान चलाने की कोशिश करते रहते हैं।

मुश्किल यह है कि इस प्रवृत्ति पर लगाम लगने के कोई आसार नहीं हैं। हैरत नहीं कि अयोध्या मामले में पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल करने वाले चुप बैठने के बजाय अन्य कानूनी विकल्पों पर विचार करते हुए नजर आएं।

नि:संदेह ऐसा करना उनका अधिकार है, लेकिन किसी भी अधिकार का बेजा इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। चूंकि इस पर कोई रोक-टोक नहीं इसलिए सुप्रीम कोर्ट में अच्छी-खासी संख्या में गैरजरूरी याचिकाएं दाखिल होती रहती हैं। इस सिलसिले पर विराम लगाने की जरूरत है।

अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला केवल सदियों पुराने विवाद का पटाक्षेप करने वाला ही नहीं, बल्कि दोनों ही पक्षों को न्याय की अनुभूति कराने वाला भी रहा। इसी कारण इस फैसले को उन फैसलों में गिना गया जिनमें न्याय केवल होता ही नहीं है, बल्कि होते हुए दिखता भी है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि संविधान पीठ के सभी पांचों न्यायाधीशों ने एकमत से अपना फैसला सुनाया। इसके बावजूद कुछ लोगों ने सर्वसम्मति से दिए गए इस फैसले को लेकर यह रेखांकित करना शुरू कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने आस्था के आधार पर फैसला सुना दिया।

इस दुष्प्रचार का मकसद राजनीतिक रोटियां सेंकना और लोगों की भावनाओं को भड़काना ही अधिक था। यह दुर्भाग्य है कि इन लोगों ने इसकी अनदेखी करना ही पसंद किया कि देश ने इस फैसले को न केवल गरिमापूर्ण तरीके से स्वीकार किया, बल्कि शांति और सद्भाव का भी परिचय दिया।

सार्वजनिक तौर पर न तो उत्साह का प्रदर्शन हुआ और न ही मायूसी का। ऐसी परिपक्वता कम ही देखने को मिलती है। बेहतर होता कि इसी परिपक्वता का परिचय वे भी देते जो बिना ज्यादा कुछ सोच-विचार किए पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल करने को तैयार हो गए।