बाल यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश देकर सही किया कि उन जिलों में विशेष अदालतों का गठन करके ऐसे मामलों का निस्तारण किया जाए जहां इस तरह के सौ से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। कहना कठिन है कि ऐसे जिले कितने हैैं, लेकिन इसे लेकर संदेह नहीं कि बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैैं। इसे इस आंकड़े से अच्छे से समझा जा सकता है कि इसी वर्ष एक जनवरी से 30 जून तक देश भर में बच्चों से दुष्कर्म की 24 हजार से अधिक घटनाओं को एफआइआर के रूप में दर्ज किया जा चुका है।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया है कि केंद्र सरकार के खर्च पर गठित होने वाली विशेष अदालतें साठ दिन के अंदर काम शुरू कर दें इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि ऐसा होगा, लेकिन उचित यह भी होगा कि यह सुनिश्चित किया जाए कि ये अदालतें फैसले देने में तत्परता का परिचय दें। यह अपेक्षा इसलिए, क्योंकि कई बार विशेष अदालतें भी धीमी गति से काम करती हुई दिखती हैैं। नि:संदेह यह भी आवश्यक है कि निचली अदालतों के फैसलों की सुनवाई में देर न हो। इन मामलों का अंतिम स्तर पर जल्द निस्तारण करके ही यौन अपराधियों को कोई सही संदेश दिया जा सकता है।

कई राज्यों ने बाल दुष्कर्म के दोषियों के लिए मृत्यु दंड की सजा का प्रावधान कर रखा है। इसका उद्देश्य कठोर दंड के जरिये दुष्कर्मी तत्वों के मन में भय का संचार करना है। इसकी जरूरत केंद्र सरकार ने भी महसूस की और इसीलिए यौन उत्पीड़न से बच्चों को संरक्षण देने वाले अधिनियम अर्थात पोक्सो को संशोधित कर यह प्रावधान किया गया है कि बच्चों से दुष्कर्म के गंभीर मामलों में फांसी की भी सजा दी जा सकती है। इसके पहले दुष्कर्म रोधी कानून को भी संशोधित कर मौत की सजा का प्रावधान किया जा चुका है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश को दहलाने वाले निर्भया कांड के गुनहगारों को दी गई फांसी की सजा पर अमल अभी तक नहीं हो सका है।

कठोर कानूनों का महत्व तभी है जब उन पर अमल भी किया जाए। यह केवल सुप्रीम कोर्ट और केंद्र अथवा राज्यों सरकारों के लिए ही नहीं समाज के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है कि बाल दुष्कर्म के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैैं। कोशिश केवल इसकी ही नहीं होनी चाहिए कि बाल दुष्कर्म के दोषियों को जल्द सजा मिले, बल्कि इसकी भी होनी चाहिए कि ऐसे घृणित अपराध होने ही न पाएं।