भारत ने कंधार में अपने वाणिज्यिक दूतावास को जिस तरह अस्थायी तौर पर बंद करने और वहां के कर्मचारियों को निकालने का फैसला किया, उससे यही स्पष्ट हो रहा है कि तालिबान लड़ाके अफगानिस्तान में अपनी बढ़त कायम करते जा रहे हैं। हालांकि, अफगान सेना तालिबान लड़ाकों को आगे बढ़ने से रोकने के हरसंभव जतन कर रही है, लेकिन अभी तक की स्थितियां यही बयान करती हैं कि वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पा रही है। यह किसी से छिपा नहीं कि तालिबान एक के बाद एक शहर अपने कब्जे में लेते चले जा रहे हैं। यदि वे इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो आने वाले दिनों में अफगानिस्तान के अन्य बड़े शहरों और राजधानी काबुल के लिए भी खतरा बन सकते हैं। यदि ऐसी स्थिति बनती है तो इसके लिए अमेरिका जिम्मेदार होगा, जिसने सब कुछ जानते-समझते हुए अपनी सेनाओं को वहां से वापस बुलाने का फैसला लिया। अमेरिकी प्रशासन को यह बताना चाहिए कि क्या उसके और तालिबान के बीच यही समझौता हुआ था कि अमेरिकी सेनाएं शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित किए बिना वहां से निकल आएंगी? अभी तो ऐसा लगता है कि उसने जानबूझकर तालिबान लड़ाकों को अफगानिस्तान पर कब्जा करने का मौका दे दिया।

अमेरिका ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के फेर में अफगानिस्तान में जिस तरह तालिबान के समक्ष आत्मसमर्पण किया, उससे उसकी साख पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यदि अमेरिका को अफगानिस्तान को तालिबान के ही हवाले करना था तो फिर उसकी सेनाएं वहां दो दशक तक क्यों डटी रहीं और क्यों उसने वहां अरबों डॉलर खर्च किए? अमेरिका ने अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़कर खुद को केवल अविश्वसनीय ही नहीं बनाया, बल्कि इस पूरे क्षेत्र की शांति को भी खतरे में डालने का काम किया है। उसने अफगानिस्तान को तालिबान और उन्हें पालने-पोसने वाले पाकिस्तान के भी हवाले करने का जो काम किया, उसके बाद अंतरराष्ट्रीय मामलों और खासकर आतंकवाद से लड़ने के उसके दावों पर भरोसा करना कठिन होगा। अमेरिका अफगानिस्तान में इसीलिए नाकाम हुआ, क्योंकि उसने तालिबान को समर्थन और संरक्षण देने के लिए पाकिस्तान को कभी जवाबदेह नहीं बनाया। यदि पाकिस्तान अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व पर इतरा रहा है तो अमेरिका की नाकाम नीति के कारण। भारत की चिंता का विषय केवल यह नहीं कि अफगानिस्तान में उसके हितों के लिए खतरा बढ़ रहा है, बल्कि यह भी है कि पाकिस्तान तालिबान का इस्तेमाल उसके खिलाफ कर सकता है। इसकी भरी-पूरी आशंका है कि इसके लिए चीन पाकिस्तान को उकसाने का काम कर सकता है। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि तालिबान सरगना किस तरह चीन को अपना मित्र बताने में लगे हुए हैं।