सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने रक्षा क्षेत्र से जुड़े एक सेमिनार में रक्षा जरूरतों के लिहाज से भारत के आत्मनिर्भर बनने की जो जरूरत जताई उससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने के लिए यह एक तरह से आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि भारत रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर बने, लेकिन यह काम आनन-फानन नहीं हो सकता। यह एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा है और निकट भविष्य में ऐसे आसार नहीं नजर आते कि भारत अपने स्तर पर अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा करने में समर्थ हो जाएगा। इन स्थितियों में सेना प्रमुख को इसकी चिंता अधिक करनी चाहिए कि भारतीय सेना की जो भी जरूरतें हैैं वे समय पर और सही ढंग से पूरी हों। सच तो यह है कि उन्हें अपने स्तर पर यह सुनिश्चित भी करना चाहिए कि इस काम में कोई ढिलाई देखने को न मिले। ऐसा इसलिए, क्योंकि अतीत में यह देखने में आ चुका है कि भारतीय सेनाओं की कुछ बड़ी जरूरतें पूरी करने में आवश्यकता से अधिक विलंब हुआ। ऐसा विलंब देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरे का कारण बन सकता है। सभी जरूरी साजो-सामान की समय पर आपूर्ति न केवल प्रतिरक्षा तंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है, बल्कि सेनाओं के मनोबल को ऊंचा बनाए रखने के लिए भी। रक्षा जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भर बनने के नाम पर कोई देश यह जोखिम भी मोल नहीं ले सकता कि वह स्वदेश निर्मित ऐसे हथियारों एवं उपकरणों का इस्तेमाल करने लगे जिनकी मारक क्षमता विश्वसनीय और प्रमाणित न हो। स्पष्ट है कि रक्षा जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भर होने के क्रम में यह हर स्तर पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो भी हथियार एवं उपकरण स्वदेश में निर्मित हो रहे हैैं वे भरोसेमंद हों और उनकी गुणवत्ता विश्वस्तरीय हो ताकि उनके निर्यात में भी आसानी हो।
अच्छा होगा कि हमारे नीति-नियंता सेना प्रमुख के इस कथन पर गंभीरता से ध्यान दें कि भारत जैसे देश को अगला कोई युद्ध स्वदेश निर्मित हथियारों से लड़ने की तैयारी रखनी चाहिए। सेना प्रमुख की बात पर गौर करने की जरूरत केवल इसलिए नहीं है कि वर्तमान में भारतीय सैन्य जरूरतें मुख्य रूप से विदेशी आयात पर निर्भर हैं, बल्कि इसलिए भी है कि भारत को हथियार एवं उपकरण खरीदने में भारी-भरकम विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ रही है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि टैैंक, पनडुब्बी और हल्के लडाकू विमान स्वदेश में तैयार करने की परियोजनाएं चल रही हैैं, क्योंकि उनकी गति बहुत शिथिल हैै। शायद इस शिथिलता का एक कारण यह है कि ऐसी सभी परियोजनाएं सरकारी क्षेत्र का हिस्सा हैैं। अब तक का अनुभव यही बताता है कि जिन देशों ने रक्षा जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल की वहां उनके निजी क्षेत्र ने बहुत मदद की। भारत में तो रक्षा सामग्री के निर्माण के लिए निजी क्षेत्र को अभी हाल में अनुमति प्रदान की गई है। इस देरी के दुष्परिणामों से तभी बचा जा सकता है जब रक्षा क्षेत्र में निवेश संबंधी नीतियां सरल होने के साथ ही निजी क्षेत्र को आकर्षित करने वाली भी हों।

[ मुख्य संपादकीय ]