एक गणतंत्र के रूप में भारत ने बहुत कुछ अर्जित किया है और समय के साथ संसार में उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी है, लेकिन इस यथार्थ को भी स्वीकार करना होगा कि इसके साथ ही चुनौतियां भी बढ़ी हैं। चुनौतियां बाहरी भी हैं और आंतरिक भी। हम आंतरिक चुनौतियों पर जितनी जल्दी पार पाएंगे, बाहरी चुनौतियों को परास्त करने में उतनी ही आसानी होगी। चुनौतियों पर विजय पाने का सबसे सरल उपाय यही है कि राष्ट्रीय एकता का भाव लगातार सुदृढ़ होता रहे और इस भावना को बल मिले कि तमाम असहमतियों के बाद भी हम सबका साझा लक्ष्य है देश को वास्तव में एक महाशक्ति के रूप में स्थापित करना।

इस साझा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि देश की राजनीतिक संस्कृति विवेकशील बने और वह दायित्व बोध से भी लैस हो। नि:संदेह समय के साथ देश में राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ है और इसके चलते वंचित वर्गो की राजनीति में हिस्सेदारी भी बढ़ी है, लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि हमारी राजनीति में वैचारिक खोखलापन बढ़ने के साथ अल्पकालिक स्वार्थो के लिए देशहित की अनदेखी की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। इस प्रवृत्ति को थामना ही होगा।

कायदे से तो यह होना चाहिए कि राजनीतिक दल समाज और देश को दिशा देने का काम करें, लेकिन राजनीति की बेढब चाल को देखते हुए अब यह अनिवार्य हो गया है कि यह दायित्व जनता स्वयं अपने ऊपर ले। उसे उन राजनीतिक तौर-तरीकों के खिलाफ खड़ा होना ही होगा, जो न केवल सुशासन में बाधक हैं, बल्कि जिनके चलते हमारे लोकतंत्र में तमाम खामियां घर कर गई हैं। इन दिनों पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के चलते ये खामियां सतह पर भी दिख रही हैं। न केवल दलबदल का दौर जारी है, बल्कि बड़ी संख्या में आपराधिक अतीत वाले लोग चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। इसके अलावा राजनीतिक दल लोगों को लुभाने के लिए अनाप-शनाप वादे करने में लगे हुए हैं।

विडंबना यह है कि चुनाव आयोग गैर जिम्मेदारी का परिचय दे रहे दलों के समक्ष असहाय सा दिख रहा है। ऐसे समय लोगों को अपने राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति और अधिक सजग होना होगा। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक दलों की मनमानी का संज्ञान ले रहा है, लेकिन बात तो तब बनेगी, जब वह उन पर प्रहार करेगा।