कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों के हाथों गंवाई अपनी राजनीतिक जमीन वापस लेने का जो संकल्प लिया, उसे हासिल करना आसान काम नहीं, क्योंकि अभी कल तक वह ऐसे दलों को अपने लिए एक बड़ा सहारा मान रही थी। यह एक तथ्य है कि राहुल गांधी ने चंद दिनों पहले ही कहा था कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के समय उन्होंने बसपा प्रमुख मायावती को मिलकर चुनाव लड़ने की प्रस्ताव दिया था। क्या यह विचित्र नहीं कि जो कांग्रेस तमिलनाडु, झारखंड और महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बनकर सत्ता का स्वाद चख रही है, वह अब उनसे ही मुकाबला करने की बात कर रही है?

क्या यह माना जाए कि कांग्रेस तमिलनाडु, झारखंड और महाराष्ट्र की साझा सरकारों से बाहर आ जाएगी? यदि वह ऐसा नहीं करती तो फिर इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि उसकी कथनी-करनी में मेल नहीं और उदयपुर के चिंतन शिविर में कोई वास्तविक मंथन नहीं हुआ।

यदि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से मोर्चा लेने को सचमुच तैयार है तो इसका अर्थ है कि वह अपनी दशकों पुरानी नीति का परित्याग कर एकला चलो की राह पर चलेगी। उसने ऐसा ही इरादा 1998 के अपने पचमढ़ी चिंतन शिविर में व्यक्त किया था, लेकिन कुछ समय बाद यानी 2003 में शिमला में जो चिंतन किया गया, उसका निष्कर्ष यह था कि गठबंधन राजनीति वक्त की जरूरत है। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस एक के बाद एक राज्यों में क्षेत्रीय दलों के लिए अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ती गई। इस क्रम में उसने कई बार ऐसे क्षेत्रीय दलों से भी हाथ मिलाया, जिनकी विचारधारा कांग्रेस से बिल्कुल भी मेल नहीं खाती थी।

आज भी कांग्रेस महाराष्ट्र में उस शिवसेना को सत्ता में बनाए रखने में सहायक बनी हुई है, जिसकी विचारधारा का वह हर स्तर पर विरोध किया करती थी। क्या कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब दे सकती है कि वह किस रीति-नीति के तहत शिवसेना की पालकी ढो रही है? कांग्रेस आने वाले समय में कुछ भी करे, उसे यह आभास होना चाहिए कि ज्यादातर राज्यों में उसने क्षेत्रीय दलों के सामने जिस तरह समर्पण किया, उससे उसकी राजनीतिक जमीन बुरी तरह खिसक चुकी है।

यदि कांग्रेस को यह लगता है कि वह उन तौर-तरीकों के सहारे अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस ले लेगी, जो क्षेत्रीय दलों ने अपना रखे हैं तो यह उसकी भूल ही है। क्षेत्रीय दल सामाजिक न्याय के नाम पर या तो जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करते हैं या फिर गरीबों को रेवड़ियां बांटने की। इसमें संदेह है कि कांग्रेस इस तरह की राजनीति से कुछ हासिल कर सकेगी।