बैजयंत जय पांडा। फरवरी का अंतिम सप्ताह राजधानी दिल्ली में दो परस्पर विरोधी तस्वीरों का गवाह बना। एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का खुले दिल से स्वागत हो रहा था तो दूसरी ओर दिल्ली के कुछ इलाकों से हिंसा की हृदयविदारक तस्वीरें सामने आ रही थीं। शहर अभी तक इन दंगों के दाग नहीं धो पाया है। इनमें करीब 50 लोगों की जान चली गई। तमाम घायल अभी भी अस्पतालों में इलाज करा रहे हैं। इस पर शायद ही किसी को हैरानी हो कि दिल्ली में ये दंगे 24 फरवरी को ही भड़के जिस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति का यहां आगमन हुआ।

वैसे तो पिछले दो महीनों से टकराव के छिटपुट मामले देखने को मिले थे, लेकिन इन दंगों की टाइमिंग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कुछ भी हो, परिपक्वता का तकाजा यही कहता है कि ऐसे तल्ख समय में शांति एवं सद्भाव का ही परिचय दिया जाता, पर हमारा राजनीतिक वर्ग खास तौर से विपक्षी दल दिल्ली पुलिस और सुरक्षा बलों की मजबूरियों को समङो बिना ही उनकी कड़ी आलोचना करने लगे। इन आलोचकों ने उन मुश्किल परिस्थितियों को अनदेखा किया जिनके तहत पुलिस लगातार शांति कायम करने के प्रयासों में जुटी थी। वास्तव में सुरक्षा बल और पुलिस हमेशा निशाने पर होते हैं। वे प्रदर्शनकारियों के पत्थर खाते हैं। तेजाबी हमले ङोलते हैं। गोलियों का निशाना बनते हैं। इसके बावजूद उनकी प्रतिष्ठा तार-तार की जाती है।

पूरे देश ने देखा कि जामिया मिल्लिया में पत्थरबाजों से निपटने में सुरक्षा बलों को कितनी आलोचना सहनी पड़ी। जेएनयू मामले में अराजक तत्वों से निपटने में भी उनके लिए कमोबेश यही स्थितियां रहीं। सुरक्षा बल भले ही सक्रियता दिखाएं या फिर टकराव टालने के मकसद से संयत रहें, लेकिन उन्हें हर हाल में निशाना बनाया जाता है। उन पर जो हमले होते हैं उससे शारीरिक एवं मानसिक आघात उनके लिए स्थितियां और खराब करता है। कभी-कभार बिगड़े हालात से जान पर भी बन आती है जैसा कि हेड कांस्टेबल रतन लाल के साथ हुआ जो ड्यूटी के दौरान शहीद हो गए।

इस मामले से जुड़ी जनहित याचिकाओं की सुनवाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई गंभीर कदम उठाने को लेकर एहतियात बरती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहली प्राथमिकता कानून एवं व्यवस्था सुनिश्चित करने की होनी चाहिए। दूसरी ओर शाहीन बाग के मसले पर शीर्ष अदालत ने अस्पष्ट रवैया ही अपनाया। वह भी तब जब सीएए के विरोध में वहां तीन महीनों से जारी विरोध-प्रदर्शन के चलते सड़क जाम से लाखों लोगों को परेशानी ङोलनी पड़ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इतना जरूर कहा कि प्रदर्शनकारियों को धरना देने का अधिकार है, लेकिन वे शहर की मुख्य सड़कों को अवरुद्ध कर लोगों की तकलीफ नहीं बढ़ा सकते।

उसने इस गतिरोध को दूर करने के लिए वार्ताकार भी नियुक्त किए जो प्रदर्शनकारियों के साथ वार्ता में लगे हैं। एक मामले में तो सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्टिविस्ट को लताड़ भी लगाई कि अव्वल तो उनका शीर्ष न्यायपालिका में भरोसा नहीं और ऊपर से वह अपने भड़काऊ बयानों से लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए उकसाते हैं और फिर अदालत में गुहार लगाते हैं कि वह अन्य नेताओं के बयानों के लिए उन पर एफआइआर कराने का आदेश दे।

सार्वजनिक विमर्श की धारा बहुत ध्रुवीकृत हो गई है। लोग ‘हम बनाम वे’ की बहस में उलङो हैं। विभाजनकारी विमर्श ने दुनिया भर में वाम, दक्षिण और मध्यमार्गी विचारधाराओं को अपनी चपेट में ले चुका है। यहां तक कि जिस मीडिया पर तार्किक रूप से बिना किसी पक्षपात के तथ्यों को सामने रखने का जिम्मा है वह भी इससे अछूता नहीं। शाहीन बाग में रिपोर्टिग के दौरान कुछ मीडियाकर्मियों के साथ हाथापाई हुई तो मीडिया के सभी वर्गो ने इसकी एक स्वर में आलोचना नहीं की। पूर्वाग्रह स्पष्ट दिखा।

मीडिया को इस तरह प्रताड़ित करने का यह सिलसिला आम हो गया है। इसमें सुविधाजनक विरोध का रवैया भी दिखता है कि जब ‘अपनों’ पर हमला हो तब उसका विरोध करते हैं, लेकिन ‘दूसरों’ के साथ र्दुव्‍यवहार से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

अफसोस की बात है कि इस विभाजन की खाई ने ‘परिपक्व’ नेताओं, पत्रकारों और सार्वजनिक जीवन से जुड़ी शख्सियतों को भी शिकंजे में ले लिया है। वे राष्ट्रपति ट्रंप के ऐतिहासिक दौरे की पूरी कटुता के साथ आलोचना में जुटे रहे जबकि इस दौरे से दोनों देशों के संबंधों एवं साङोदारी में अप्रत्याशित रूप से सुधार हुआ। यह बहुत ही विचित्र है कि कोई व्यक्ति मोदी और ट्रंप के बीच शानदार तालमेल पर बेवजह नाक-भौं सिकोड़े जबकि हकीकत यह है कि ऐसे रिश्तों से देश और व्यापक भू-राजनीतिक हितों को बहुत लाभ होता है।

कुल मिलाकर यह स्पष्ट दिख रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के बढ़ते कद, लगातार चुनावी सफलता, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती उनकी लोकप्रियता से कुपित कुछ लोग किसी भी कीमत पर उनका विरोध करना चाहते हैं। उन्हें न तो सिद्धांतों का लिहाज है और न ही इसके नतीजों की परवाह। सीएए जैसे मानवीय कानून के बेजा विरोध में भी यही झलकता है।

सीएए के तमाम विरोधियों ने निजी बातचीत में कई अवसरों पर खुद स्वीकार किया कि यह किसी भी भारतीय के साथ कोई भेदभाव नहीं करता और इससे किसी भारतीय की नागरिकता के लिए कोई खतरा भी नहीं। कुछ लोग नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानी एनआरसी पर आपत्ति जता रहे हैं, लेकिन वे इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि खुद प्रधानमंत्री कई बार कह चुके हैं कि अभी तक एनआरसी की कोई योजना नहीं। आलोचकों को इसके विरोध और इसे मुद्दा बनाने का अधिकार है, पर तभी जब इसका कोई आधिकारिक स्वरूप सामने आए।

तमाम लोगों का ऐसा मानना है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों ने जानबूझकर मुस्लिमों को बरगलाने का काम किया कि इससे उनकी नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी। ऐसा डर एकदम निराधार है। हर किसी को असहमति का अधिकार है, लेकिन इसकी आड़ में कोई सार्वजनिक-निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर, रास्ते रोककर या आम लोगों को प्रताड़ित कर कानून अपने हाथ में नहीं ले सकता। एक ऐसे दौर में जब हम महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं तब यह दर्शाने की जरूरत है कि हम सिद्धांतों के लिए कितने समर्पित हैं न कि यह जताने के लिए कि विरोध के नाम पर कैसा भी विरोध कर सकते हैं।

(लेखकभाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)