रक्षा मंत्रालय की रक्षा खरीद परिषद की ओर से 46 हजार करोड़ रुपये की रक्षा खरीद को मंजूरी एक बड़े फैसले पर मुहर है। इस फैसले के अनुसार करीब 21 हजार करोड़ रुपये नौसेना के लिए111 हेलिकॉप्टर खरीदने में खर्च होंगे और शेष धनराशि अन्य रक्षा सामग्री की खरीद में। यह अच्छी बात है कि युद्धक सामग्री की इस खरीद में यह ध्यान रखा गया है कि मेक इन इंडिया अभियान को प्रोत्साहन मिले। यह भी स्वागतयोग्य है कि कुछ रक्षा सामग्री स्वदेश में ही निर्मित होगी और कुछ की तकनीक भारत को हासिल होगी, लेकिन अब समय आ गया है कि भारत रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर होने का कोई लक्ष्य तय करे और उसे हासिल भी करे।

आज जब भारत खुद को दुनिया की एक बड़ी ताकत के रूप में देख रहा है और विश्व समुदाय भी उसके उभार का संज्ञान ले रहा है तब यह ठीक नहीं कि वह युद्धक सामग्री के सबसे बड़े खरीददार के रूप में जाना जा रहा है। सभी प्रमुख देशों की इस खासियत से भारत को भी लैस होना चाहिए कि वे रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर हैं। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि भारत रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि कोई नहीं जानता कि उस तक कब पहुंचा जा सकेगा? यह सही है कि विश्व स्तरीय रक्षा उद्योग खड़ा करने के लिए भारी-भरकम वित्तीय साधन चाहिए, लेकिन इसके साथ ही प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति भी चाहिए। इस मामले में हमे इजरायल से सीख लेनी चाहिए। अगर इजरायल रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर हो सकता है तो हम क्यों नहीं हो सकते?

हालांकि मोदी सरकार रक्षा सामग्री के निर्माण में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की नीति पर चल रही है और इसके तहत सेना की जरूरत के कुछ उपकरण और हथियार निजी क्षेत्र की कंपनियों को बनाने की अनुमति भी दी गई है, लेकिन अभी अपेक्षित नतीजे सामने आने शेष हैं। समझना कठिन है कि जब विदेश की निजी कंपनियों से तमाम रक्षा खरीद की जा रही थी तब अपने निजी क्षेत्र को रक्षा सामग्री के उत्पादन से दूर रखने की नीति पर क्यों चला गया? कम से कम अब तो यह सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि हमारा निजी क्षेत्र उन्नत किस्म की रक्षा सामग्री का निर्माण करने में सक्षम हो। इसी क्रम में यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान ऐसी रक्षा सामग्री का उत्पादन करने में सक्षम हो जो सेना की कसौटी पर खरी उतरे।

इस सबके साथ ही रक्षा सौदों में अनावश्यक देरी से बचने के भी कुछ उपाय किए जाने चाहिए। इसका कोई मतलब नहीं कि सेना की जरूरतें पूरी करने के मामले में लंबे समय तक विचार-विमर्श ही होता रहे। यह विचार-विमर्श किस तरह लंबा खिंचता है, इसका एक उदाहरण राफेल लड़ाकू विमानों का सौदा है। इस सौदे पर बातचीत 2011 में शुरू हुई थी, लेकिन वह 2015 में पूरी हो सकी। यह भी एक विडंबना ही है कि अब इस सौदे में कथित गड़बड़ी की खोज करके उसे चुनावी मसला बनाने की कोशिश हो रही है।