बजट सत्र के दूसरे चरण के पहले दिन संसद में वही हुआ जिसका अंदेशा था। दोनों सदनों में दिल्ली दंगों पर कोई धीर-गंभीर चर्चा होने के बजाय जमकर हल्ला-हंगामा हुआ। चूंकि जोर हंगामा मचाने पर ही था इसलिए हैरत नहीं कि पक्ष-विपक्ष के सांसदों के बीच हाथापाई होते-होते बची। यह तो गनीमत रही कि हाथापाई की नौबत आने पर सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी जाती रही, अन्यथा वहां मारपीट भी हो सकती थी। समझना कठिन है कि जब सरकार दिल्ली दंगों पर चर्चा करने और विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए सहमत थी तब फिर विपक्ष ने नारेबाजी करना जरूरी क्यों समझा? कहीं इसलिए तो नहीं कि दिल्ली का माहौल बिगाड़ने के लिए वह भी जिम्मेदार है?

आखिर यह किससे छिपा है कि नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ लोगों को भड़काने में विपक्ष ने कोई कसर नहीं उठा रखी? यह राजनीतिक बेशर्मी के अलावा और कुछ नहीं कि सीएए के खिलाफ भड़काऊ बयान देने वाले विपक्षी नेता सीएए के समर्थन में ऐसे ही बयान देने वाले सत्तापक्ष के नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। दिल्ली में दंगा किसी धार्मिक मसले पर नहीं, बल्कि सीएए रूपी राजनीतिक मसले पर हुआ। इस मसले पर विपक्षी दलों के साथ-साथ वामपंथी बुद्धिजीवियों ने जैसा विष वमन किया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है।

सीएए का किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं, फिर भी विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस ने दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह माहौल बनाया कि यह देश के मुसलमानों के खिलाफ है। अब तो यह भी साबित हो रहा है कि मुस्लिम समुदाय को भड़काने के साथ ही उसे अमेरिकी राष्ट्रपति के दिल्ली आगमन के अवसर पर सड़कों पर उतारने की सुनियोजित साजिश रची गई ताकि केंद्रीय सत्ता को असहज करने के साथ ही दुनिया को यह दिखाया जा सके कि सीएए ने भारत में किस तरह उबाल पैदा कर दिया है?

किसी को इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान दिल्ली में हुए दंगे उस कुत्सित राजनीति का ही नतीजा हैं जिसके आयोजक और प्रायोजक हमारे अपने विपक्षी दल थे। ये दल अभी भी ऐसा रवैया अपनाए हुए हैं जैसे उन्हें शरणार्थियों से ज्यादा चिंता घुसपैठियों की है। चूंकि वे अभी भी आग से खेल रहे हैं इसलिए उन्हें वैसे ही बेनकाब किया जाना चाहिए जैसे दिल्ली के दंगों के गुनहगारों को। इससे इन्कार नहीं कि पुलिस दिल्ली के बिगड़ते हालात को भांप नहीं सकी और सरकार भी समय रहते सक्रियता का परिचय नहीं दे पाई, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विपक्षी दल दूध के धुले हैं। वास्तव में उनकी ही लगाई गई आग से दिल्ली जली।