प्रधानमंत्री ने इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक का उद्घाटन करते हुए बैंकों के फंसे कर्जे यानी एनपीए के लिए नामदार लोगों के बहाने जिस तरह कांग्रेस को घेरा वह इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पिछली सरकार ने छल-छद्म का सहारा लेकर उन लोगों को नए सिरे से कर्ज दिलवाया जो दीवालिया होने की कगार पर थे। अगर संप्रग शासन में सचमुच ऐसा ही हुआ तो इसे बैंकिंग व्यवस्था में सेंधमारी के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। बेहतर हो कि पिछली सरकार के नीति-नियंता प्रधानमंत्री के आरोपों का जवाब दें। सवालों के घेरे में खड़े इन लोगों की ओर से यह कहने से काम चलने वाला नहीं कि मोदी सरकार चुनिंदा उद्योगपतियों के लिए काम कर रही है, क्योंकि देश को यह आभास है कि संप्रग सरकार के समय किस तरह कपट भरे पूंजीवाद को संरक्षण प्रदान किया गया।

अच्छा होगा कि मोदी सरकार करोड़ों रुपये के कर्ज डकारने वालों के साथ उन्हें भी जवाबदेह बनाए जिनके कारण बैंक न चाहते हुए भी कर्जे देने के लिए विवश हुए। कम से कम उन नामदार लोगों का नाम तो सामने आना ही चाहिए जिन्हें प्रधानमंत्री बैंकों की बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। केवल इतना ही पर्याप्त नहीं कि प्रधानमंत्री बिना नाम लिए कांग्रेसी नेताओं को आईना दिखा रहे हैं। इसके साथ ही ऐसे कदम उठाना भी आवश्यक है जिससे बैंक एनपीए के दुष्चक्र से बाहर आएं।

यह सही है कि मोदी सरकार ने कर्ज हड़पने और कर्जे देने में आनाकानी करने वालों के खिलाफ सख्ती दिखानी शुरू की है, लेकिन अभी तक अपेक्षित नतीजे सामने नहीं आ सके हैं। इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल में पहुंचे मामलों का निस्तारण धीमी गति से हो रहा है। इसके चलते ही फंसे कर्जे वाली राशि घटने का नाम नहीं ले रही है। यह ठीक नहीं कि बीते एक साल में जिन कंपनियों के मामले राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल पहुंचे उनमें से केवल एक का निस्तारण हो पाया है। संभवत: इसी कारण कर्ज के फंसे कर्ज में तब्दील होने का सिलसिला थमता नहीं दिखाई देता।

पांच माह पहले के एक आंकड़े के अनुसार सरकारी क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया था। यह शुभ संकेत नहीं कि जब बैंक मुनाफे की स्थिति में आने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद करीब दो दर्जन बिजली कंपनियों पर बकाया राशि के भी एनपीए में तब्दील होने का अंदेशा उभर आया है।

अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि बैंक घाटे में डूबते दिखने से बचें। इसमें दोराय नहीं कि सरकार बैंकों को घाटे से उबारने की कोशिश कर रही है, लेकिन बात तो तब बनेगी जब यह कोशिश कामयाब होती दिखेगी। फिलहाल यह स्थिति निर्मित होती नहीं दिख रही है। बैंकों को घाटे से उबारने के ठोस उपायों के साथ यह भी समय की मांग है कि उनके विलय की प्रक्रिया आगे बढ़े। इसमें संदेह है कि विलय का फैसला बैंकों पर ही छोड़ने से अभीष्ट की पूर्ति हो सकेगी।