प्रधानमंत्री ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए कृषि कानूनों को लेकर विपक्ष को केवल बेनकाब ही नहीं किया, बल्कि उसे निरुत्तर भी किया। शायद इसी कारण कांग्रेस ने सदन का बहिष्कार करना पसंद किया। कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के संबोधन को सुनने से इन्कार करके इस आक्षेप को सही ही सिद्ध किया कि उसका एक तबका दूसरे से अलग व्यवहार कर रहा है। समझना कठिन है कि कांग्रेस एक ही मसले पर लोकसभा और राज्यसभा में अलग-अलग रवैया क्यों अपनाए हुए है? हो सकता है कि यह भी उसकी कोई रणनीति हो, लेकिन यह तय है कि उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि वह कृषि कानूनों का विरोध क्यों कर रही है और ऐसा करते हुए उन तत्वों के साथ क्यों खड़ी है, जो आंदोलनकारी नहीं, बल्कि आंदोलनजीवी हैं? यह अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री ने उदाहरण देकर आंदोलनजीवी और आंदोलनकारी के भेद को रेखांकित किया। आंदोलन के नाम पर हिंसा करने, सरकारी-गैर सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और नफरत फैलाने वाले आंदोलनकारी नहीं कहे जा सकते। गणतंत्र दिवस पर उपद्रव के साथ टोल नाकों पर कब्जे की कोशिश यही बयान करती है कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन में आंदोलनजीवी किस्म के लोग घुस आए हैं और जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा, इन तत्वों ने इस आंदोलन की पवित्रता को कलंकित किया है। यह अफसोस की बात है कि किसान नेता इसकी परवाह नहीं कर रहे हैं।

अब जब प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों में कमी बताने और नए सिरे से बात करने के लिए किसान नेताओं को आमंत्रित किया है तो उन्हेंं अपनी यह जिद छोड़कर आगे आना चाहिए कि इन कानूनों को वापस लिया जाए। वैसे भी इस जिद का कोई मतलब इसलिए नहीं, क्योंकि ये कानून किसानों पर बाध्यकारी नहीं हैं। इनके जरिये किसानों को अनाज बिक्री के मामले में एक और विकल्प दिया गया है। किसान नेताओं और विपक्षी दलों को यह बताना चाहिए कि आखिर कृषि उपज की बिक्री का एक और विकल्प समस्या कैसे बन सकता है? जब ऐसी बाध्यता ही नहीं कि किसानों को इस नए विकल्प को अपनाना ही होगा, तब फिर विरोध का औचित्य क्या है? यह सवाल इस दुष्प्रचार की पोल ही खोलता है कि किसानों ने जिन कानूनों की मांग ही नहीं की, उन्हेंं उन पर थोपा जा रहा है। इन कानूनों के संदर्भ में यह तर्क एक कुतर्क ही है कि सरकार को लोगों की मांग के आधार पर कानून बनाना चाहिए। क्या यह कहने की कोशिश की जा रही है कि सरकारों को तब तक हाथ पर हाथ रखकर बैठना चाहिए जब तक किसी कानून का निर्माण करने की मांग न होने लगे?