इस पर हैरानी नहीं कि लोकसभा तय समय से दो दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गई। विपक्ष के रवैये को देखते हुए ऐसा कुछ होने के आसार पहले ही उभर आए थे। आखिरकार जैसी आशंका थी, वैसा ही हुआ। लोकसभा की तरह राज्यसभा भी समय से पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई। संसद के इस मानसून सत्र में राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न मसलों पर चर्चा होने के साथ करीब 30 विधेयक पारित होने थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। दोनों ही सदनों में उम्मीद से कहीं कम काम हुआ। विपक्ष इस पर अपनी पीठ थपथपा सकता है कि उसने संसद में ज्यादातर समय हंगामा किया और सरकार के एजेंडे को पूरा नहीं होने दिया, लेकिन यह शाबासी नहीं, शर्मिंदगी का विषय है। इसलिए और भी, क्योंकि विपक्षी सांसदों ने संसद में जब-तब ओछी हरकतें भी कीं। लज्जा की बात यह है कि उन्हें अपने अमर्यादित आचरण पर अफसोस भी नहीं। कुछ सांसद तो ऐसे हैं, जो अपनी ओछी हरकतों को जायज ठहरा रहे हैं। इस तरह का रवैया तो संसद की गरिमा को धूल-धूसरित करने का ही काम करेगा। वास्तव में विपक्ष ने संसद को लगातार बाधित करके न केवल अपना, बल्कि देश का नुकसान किया। उसने संसद के मानसून सत्र को बाधित कर एक तरह से अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। उसके पास विभिन्न मुद्दों पर सरकार को घेरने, उसे जवाबदेह ठहराने के साथ विभिन्न विधेयकों में संशोधन कराने का मौका था, लेकिन उसने यह सब गंवा दिया।

क्या इससे खराब बात और कोई हो सकती है कि विपक्ष के अड़ियल रवैये के कारण देश के लिए जरूरी समझे जाने वाले कामों में बाधा खड़ी हो? आखिर विपक्षी दल किस मुंह से यह दावा कर सकते हैं कि वे जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर जिम्मेदार हैं? यह तो गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ही है कि विपक्ष ने जिन मुद्दों पर चर्चा जरूरी बताई, उन पर बहस की नौबत ही नहीं आने दी। क्या विपक्ष इस पर विचार करेगा कि उसे हंगामा करके हासिल क्या हुआ, क्योंकि देश की जनता को तो यही संदेश गया है कि संसद के मानसून सत्र में विपक्ष ने अधिकतर समय हंगामा करने के अलावा और कुछ नहीं किया। नि:संदेह संसद चलाना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि वह विपक्ष का हुक्म बजाए। विपक्ष को सत्तापक्ष के रवैये से असहमत होने का अधिकार है, लेकिन वह सरकार को अपने मन मुताबिक चलने के लिए विवश नहीं कर सकता। दुर्भाग्य से मानसून सत्र में वह यही करने पर आमादा दिखा। यह लोकतांत्रिक रवैया नहीं।