दिल्ली में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं की मुलाकात से यदि कुछ संकेत मिल रहा है तो यही कि महाराष्ट्र में सरकार गठन को लेकर फिर कोई खिचड़ी पक रही है। कहना कठिन है कि यह खिचड़ी कब पकेगी, क्योंकि जब शिवसेना को समर्थन देने के सवाल पर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं में मंत्रणा हो रही थी तब शरद पवार प्रधानमंत्री से मुलाकात कर रहे थे। हालांकि उनकी मानें तो वह किसानों के मसले पर प्रधानमंत्री से मिले, लेकिन आखिर इसे कैसे भूल सकते हैं कि चंद दिनों पहले सोनिया गांधी से मुलाकात करने के बाद उन्होंने कहा था कि हमारी सरकार गठन को लेकर तो कोई बात ही नहीं हुई।

शरद पवार की प्रधानमंत्री से मुलाकात चाहे जिस मसले पर हुई हो, यह दिखने लगा है कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने शिवसेना को समर्थन देने का मन बना लिया है। इसके बावजूद शायद बात तभी बनेगी जब शिवसेना के नेतृत्व वाली भावी सरकार का स्वरूप तय होगा। इस सरकार का स्वरूप कुछ भी हो, शिवसेना के साथ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को भी कुछ कठिन सवालों से दो-चार होना होगा। सबसे पहला सवाल तो यही होगा कि क्या शिवसेना का साथ देने के बाद भी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी खुद को कथित तौर पर पंथनिरपेक्ष दल बताती रहेंगी? अगर इन दोनों दलों को शिवसेना की राजनीति रास आ गई है तो फिर उनके मुद्दों का क्या होगा जिनके आधार पर वे चुनाव मैदान में उतरे थे? स्पष्ट है कि यदि सत्ता के लोभ में शिवसेना अवसरवादी राजनीति का परिचय दे रही है तो यही काम कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कर रही हैं।

महाराष्ट्र में एक तरह से कर्नाटक को भी मात देने वाला बेमेल राजनीतिक प्रयोग किया जा रहा है। कर्नाटक में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े जनता दल-एस और कांग्रेस ने हाथ मिला लिया था तो महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लोभ में शिवसेना भाजपा से नाता तोड़कर अपने धुर विरोधी दलों की गोद में बैठने को तैयार है। यह मौकापरस्त राजनीति का चरम है। इसके बुरे नतीजे शिवसेना के साथ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस को भी भोगने होंगे।

नि:संदेह गठबंधन राजनीति के नाम पर राजनीतिक दलों ने पहले भी मनमानी की है, लेकिन महाराष्ट्र में जो कुछ होता हुआ दिख रहा है वह तो एक तरह से जनादेश की लूट है। इस तरह की बेशर्म राजनीति लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को छिन्न-भिन्न करने वाली ही है। अब न तो चुनाव पूर्व गठबंधन भरोसे के काबिल होंगे और न ही तथाकथित पंथनिरपेक्ष राजनीति।