देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला पारदर्शी प्रशासन के पक्ष में एक बड़ी जीत है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना अधिकार कानून के अधीन होगा। उच्चतम न्यायलय की संविधान पीठ के इस फैसले से स्पष्ट हो गया कि 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह सही निर्णय दिया था कि शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत आना चाहिए। यह निर्णय देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ किया था कि पारदर्शिता से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होती, लेकिन उच्चतम न्यायालय के महासचिव इससे सहमत नहीं हुए और उन्होंने इस फैसले को चुनौती दी। इसकी बड़ी वजह यही रही कि उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय के आदेश से असहमत थे। इस असहमति के चलते एक तरह से खुद उच्चतम न्यायालय मुकदमेबाजी में उलझा। इससे बचा जाता तो बेहतर होता, क्योंकि सूचना के अधिकार को निजता के अधिकार में बाधक नहीं कहा जा सकता।

यह अच्छा नहीं हुआ कि दिल्ली उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले पर उच्चतम न्यायालय को मुहर लगाने में नौ साल लग गए। देर से ही सही, इस मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ इस निर्णय पर पहुंचना स्वागतयोग्य है कि पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का निर्वहन साथ-साथ किया जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस पीठ में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ वे तीन न्यायाधीश भी शामिल थे जो भविष्य में उनके उत्तराधिकारी बन सकते हैं।

चूंकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तो के साथ ही सूचना अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह देखना होगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं? यह आशा की जानी चाहिए कि इस फैसले का असर कोलेजियम के कामकाज को भी पारदर्शी बनाएगा। आखिर जब खुद उच्चतम न्यायालय यह मान चुका हो कि कोलेजियम व्यवस्था को दुरुस्त करने की जरूरत है तब फिर उसके कामकाज को पारदर्शी बनाने की दिशा में आगे बढ़ा ही जाना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत लाने वाला फैसला यह एक जरूरी संदेश दे रहा है कि लोकतंत्र में कोई भी और यहां तक कि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश भी कानून से परे नहीं हो सकते। बेहतर हो कि इस संदेश को वे राजनीतिक दल भी ग्रहण करें जो इस पर जोर दे रहे हैं कि उन्हें सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाना ठीक नहीं। यह व्यर्थ की दलील है। इसका कोई औचित्य नहीं कि राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून से बाहर रहें। राजनीतिक दलों का यह रवैया लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है।