राफेल विमान सौदे पर यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण की ओर से आरोपों की जो नई खेप सामने लाई गई उसमें कुछ को छोड़कर करीब-करीब वही बातें हैैं जो इसके पहले खुद इन तीनों के साथ-साथ राहुल गांधी की ओर से कही जा चुकी हैैं। ऐसे आरोप थोड़ी देर के लिए सनसनी तो पैदा कर सकते हैैं कि राफेल सौदा कल्पना से भी बड़ा घोटाला है या फिर सरकार वायुसेना के अफसरों से भी झूठ बुलवा रही है अथवा यह न समझा जाए कि देश में लोकतंत्र खत्म हो चुका है, लेकिन अगर कोई पुष्ट प्रमाण सामने नहीं रखे जाते तो वे असर छोड़ने वाले नहीं। इसी तरह राफेल सौदे को लेकर सरकार की ओर से समय-समय पर दिए जाने वाले बयानों में विरोधाभास का उल्लेख कर घोटाला होने का दावा नहीं किया जा सकता।

अभी तक आम तौर पर यह रेखांकित किया जा रहा था कि राफेल विमान कहीं अधिक महंगे खरीदे गए हैैं, लेकिन लगता नहीं कि इस सौदे में घोटाला देख रहे लोगों के पास अपनी बात को सही साबित करने के पक्ष में कोई पुष्ट प्रमाण हैैं। इस सौदे में घोटाला देखने वालों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या मनमोहन सरकार के समय जिस कीमत पर राफेल विमान खरीदने की तैयारी थी उसी कीमत पर 2015 में भी ये विमान उपलब्ध होते?

आखिर कब तक यह दोहराया जाता रहेगा कि करीब छह सौ करोड़ रुपये वाला विमान लगभग 1600 करोड़ रुपये में क्यों खरीदा गया? ऐसा आरोप लगाने वालों को यह पता होना चाहिए कि किसी सौदे में बाजार के हिसाब से कीमत तय करने पर वर्ष दर वर्ष मूल्य बढ़ते रहना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह मजाक तो किया जा सकता है कि राफेल विमान में भारत की जरूरत के हिसाब से बदलाव करना हेलमेट खरीदने जैसा है, लेकिन सच्चाई यह है कि रक्षा सौदों में संबंधित देश की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन किए जाते हैैं और इसके चलते उनकी कीमत घटती-बढ़ती है।

राफेल सौदे को लेकर एक आरोप यह है कि सरकारी कंपनी एचएएल की अनदेखी करके अनिल अंबानी की कंपनी को अनुचित फायदा पहुंचाया गया, लेकिन ऐसा कहने वाले यह नहीं बता पा रहे हैैं कि क्या राफेल बनाने वाली फ्रांसीसी कंपनी दौसाल्ट एचएएल के साथ काम करने को तैयार थी? क्या ऐसा संभव है कि 36 राफेल विमान की खरीद का जो सौदा 2015 में हुआ उसके बारे में अनिल अंबानी के अलावा अन्य सभी और यहां तक कि फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति भी बेखबर थे?

यह समझ में आता है कि चुनाव करीब आ रहे हैैं इसलिए विपक्ष और सरकार के आलोचक उसे कठघरे में खड़ा करने को उतावले हैैं, लेकिन कम से कम रक्षा सौदों को सस्ती राजनीति का जरिया बनाने से बाज आया जाना चाहिए। जो यह दावे के साथ कह रहे हैैं कि राफेल सौदे में घोटाला हुआ है उन्हें इतना तो स्पष्ट करना ही चाहिए कि घोटाले की रकम कहां गई और किसे मिली? इस पर भी गौर करें कि अदालत जाने के सवाल पर गोलमोल जवाब देते-देते अदालतों पर ही अविश्वास जता दिया गया।