आम चुनाव के पहले चरण के लिए हुए मतदान में जैसा उत्साह देखने को मिला वह न केवल कायम रहना चाहिए, बल्कि यह भी देखा जाना चाहिए कि आने वाले चरणों में मतदान फीसद और कैसे बढ़े? यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कई जगह तो मतदान अपेक्षा के अनुरूप हुआ, लेकिन कुछ स्थान ऐसे रहे जहां उतना मतदान नहीं हुआ जितना अपेक्षित था। यह शुभ संकेत नहीं कि कुछ स्थान ऐसे भी दिखे जहां पिछली बार के मुकाबले कम मतदान हुआ। हालांकि कम मतदान के लिए आम तौर पर मतदाताओं की उदासीनता को जिम्मेदार ठहराया जाता है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई बार व्यवस्था की खामी के चलते कुछ लोग चाहकर भी वोट नहीं डाल पाते। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कहीं मतदाता सूचियां दुरुस्त नहीं होतीं तो कहीं नए मतदाता पहचान पत्र समय पर नहीं तैयार हो पाते।

यह स्थिति शायद तब तक बनी रहेगी जब तक मतदाता सूचियों को दुरुस्त करने और मतदाता पहचान पत्र तैयार करने के लिए आवश्यक संसाधन की चिंता नहीं की जाएगी। एक तथ्य यह भी है कि बहुत सारे लोग नौकरी या काम के सिलसिले में किसी दूसरे स्थान पर रह रहे होते हैं और उनका वोट अन्यत्र कहीं होता है। इनमें से तमाम लोग इस स्थिति में नहीं होते कि छुट्टी लेकर अपने गांव-शहर मतदान करने जा सकें। जब यह स्पष्ट है कि समय के साथ ऐसे लोगों की संख्या बढ़नी है तब फिर इस बारे में सोचा ही जाना चाहिए कि ऐसे लोग जहां पर हैं वहीं पर अपने मताधिकार का इस्तेमाल कैसे कर सकें? नि:संदेह इसकी चिंता चुनाव आयोग के साथ सभी राजनीतिक दलों को भी करनी होगी। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि मतदान के वक्त केवल वोट की अपील करने से अभीष्ट की पूर्ति होने वाली नहीं है।

भारत के आम चुनाव दुनिया के सबसे बड़े चुनाव होते हैं। इतने बड़े देश में मतदान के दौरान कुछ अप्रिय प्रसंगों से बचना मुश्किल है, लेकिन यह ठीक नहीं कि पहले चरण के मतदान के दौरान कुछ स्थानों पर्र हिंसा हुई, जिसमें लोगों की जान भी गई। ऐसी हिंसा उस दौर की याद दिलाती है जब मतदान के दौरान व्यापक धांधली और उपद्रव होता था। आने वाले दिनों में चुनाव आयोग को देश के उन हिस्सों में कहीं अधिक सतर्कता का परिचय देना होगा जहां राजनीतिक दलों के समर्थक हिंसा का सहारा लेकर विरोधियों को वोट देने से रोकते हैं।

चुनाव प्रक्रिया में छलबल और बाहुबल के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। यह चिंताजनक है कि देश के कुछ राज्य अभी भी चुनावी हिंसा से मुक्त होते नहीं दिख रहे हैं। पश्चिम बंगाल की गिनती ऐसे ही राज्यों में हो रही है। इसका कोई औचित्य नहीं कि पश्चिम बंगाल में जैसी जोर-जबरदस्ती वाम दलों के शासन के वक्त देखने को मिलती थी कुछ वैसी ही आज भी देखने को मिले। यह सही है कि राजनीतिक दलों के लिए चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे मनमानी करें। बेहतर होगा कि चुनाव आयोग मतदान प्रक्रिया में खलल डालने वाले तत्वों के प्रति सख्ती बरतने में संकोच न करे।