सुप्रीम कोर्ट ने बिहार के सुपौल जिले में एक आवासीय बालिका विद्यालय की छात्राओं से मारपीट और साथ ही देश के दूसरे हिस्सों में बच्चों के यौन उत्पीड़न एवं दुष्कर्म की घटनाओं पर उचित ही चिंता और नाराजगी जताई, लेकिन यह कहना कठिन है कि बाल हितों की रक्षा के लिए किसी राष्ट्रीय संस्था के गठन के उसके सुझाव पर अमल से अभीष्ट की पूर्ति हो जाएगी। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार के स्तर पर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय पहले से ही है। इसी तरह एक राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग भी है। इसके अलावा राज्यों में भी ऐसे ही आयोग हैैं। अगर ये सब प्रभावी साबित नहीं हो पा रहे हैैं तो फिर इसकी क्या गारंटी कि बच्चों के हितों का ख्याल रखने वाली कोई नई राष्ट्रीय संस्था उम्मीदों पर खरा उतर पाएगी?

चूंकि बच्चे देश का भविष्य होते हैैं इसलिए उनके हितों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के सुझाव पर अमल करने में हर्ज नहीं, लेकिन बेहतर यह होगा कि न्यायपालिका के साथ-साथ विधायिका और कार्यपालिका यह समझे कि बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और उनके यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए और भी कुछ करने की आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि एक ओर जहां बाल संरक्षण गृहों में रहने वाले बालक-बालिकाओं के उत्पीड़न की खबरें लगातार आ रही हैैं वहीं दूसरी ओर बच्चों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं भी बेलगाम हो रही हैैं।

यौन शोषण और दुष्कर्म की घटनाएं इसके बावजूद कम होती नहीं दिख रही हैैं कि एक के बाद एक राज्य सरकारें बच्चियों से दुष्कर्म के अपराध में फांसी की सजा का प्रावधान कर रहे हैैं। ये प्रावधान कुछ वैसे ही बेअसर साबित हो रहे हैैं जैसे दिल्ली के निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर करने के उपायों का हुआ। बच्चियों और महिलाओं को अपना शिकार बनाने वाले दुष्कर्मी तत्वों के मन में कठोर कानूनों का वैसा भय नहीं दिख रहा जैसा होना चाहिए। कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि इन कठोर कानूनों पर समय रहते अमल नहीं हो पा रहा है? समझना कठिन है कि देश में सिहरन पैदा करने वाले निर्भया कांड के गुनहगारों की सजा पर अमल क्यों नहीं हो रहा है?

यह खेद की बात है जिस मामले में उदाहरण पेश करने की जरूरत थी उसमें भी ऐसा नहीं किया जा सका। जितना जरूरी यह है कि समय पर न्याय मिले उतना ही यह भी तो है कि गंभीर अपराध के दोषियों को वक्त पर सजा मिले। यह ठीक नहीं कि दुष्कर्म के जिन मामलों में निचली अदालतें समय पर फैसला सुना देती हैैं, उनका निपटारा ऊंची अदालतों में आनन-फानन नहीं हो पाता।

यौन अपराधियों पर लगाम लगाने के लिए सक्षम पुलिस और त्वरित न्याय प्रणाली के साथ कठोर कानून भी चाहिए, लेकिन इस सबके साथ ही उचित शिक्षा-दीक्षा भी चाहिए और भावी पीढ़ी को संस्कारवान बनाने की पुष्ट परंपरा भी। हमारे नीति-नियंताओं को यह समझना ही होगा कि उनका एक बड़ा दायित्व बेहतर समाज का निर्माण करना है और यह काम केवल नए कानून अथवा संस्थाएं बनाने से नहीं होने वाला।