कोलकाता के नीलरतन सरकार अस्पताल में एक मरीज की मौत के बाद जूनियर डॉक्टरों पर जिस तरह धावा बोलकर उनसे मारपीट की गई वह गुंडागर्दी के अलावा और कुछ नहीं। हिंसक भीड़ के इस हमले में कई डॉक्टर घायल हुए और एक की तो जान पर ही बन आई। कायदे से इस खुली अराजकता के खिलाफ राज्य सरकार और साथ ही पुलिस को सख्ती का परिचय देना चाहिए था, लेकिन ऐसा करने में हीलाहवाली ही दिखाई गई। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि वोट बैंक की राजनीति के चलते ही यह हीलाहवाली दिखाई गई।

पश्चिम बंगाल पहले से ही कानून एवं व्यवस्था की अनदेखी के लिए चर्चा में है। ऐसा लगता है कि ममता सरकार अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति के फेर में अपने बुनियादी दायित्वों को ही भूल बैठी है। इसका एक प्रमाण यह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सरकारी अस्पताल में हमले के बाद हड़ताल पर गए डॉक्टरों को चार घंटे के अंदर काम पर लौटने का अल्टीमेटम देना जरूरी समझा। उन्होंने यह भी कहा कि अगर हड़ताली डॉक्टर काम पर नहीं लौटते तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। यह टकराव मोल लेने वाला रवैया ही है। ऐसे रवैये से हालात और बिगड़ने की ही अंदेशा है।

नि:संदेह डॉक्टरों की हड़ताल का समर्थन नहीं किया जा सकता, लेकिन क्या यह उचित नहीं होता कि मुख्यमंत्री उनकी इस मांग पर गौर करतीं कि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए और साथ ही नीलरतन अस्पताल में हमला करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए?

हिंसक भीड़ के हमले का शिकार बने डॉक्टरों का आक्रोश समझ आता है, लेकिन यह अच्छा नहीं हुआ कि पहले नीलरतन अस्पताल एवं मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर हड़ताल पर गए और फिर राज्य के अन्य सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों ने भी काम बंद कर दिया। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों के समर्थन में बंगाल के निजी अस्पतालों के डॉक्टर भी हड़ताल पर चले गए हैं। इसके चलते बीमार लोगों के सामने संकट आ खड़ा हुआ है। वे उपचार के लिए दर-दर भटक रहे हैं। यह स्थिति ठीक नहीं।

हड़ताली डॉक्टरों को इस पर विचार करना ही चाहिए कि आखिर अपने साथ हुए अन्याय के विरोध में हड़ताल पर चले जाने का तरीका कितना उचित-कितना नैतिक है? इस सवाल पर पश्चिम बंगाल के साथ-साथ देश के उन डॉक्टरों को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए जो कोलकाता की घटना के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करते हुए हड़ताल पर जाने का उपक्रम कर रहे हैं। डॉक्टरों को अपनी बात कहने और विरोध जताने का पूरा अधिकार है, लेकिन उनका पेशा उन्हें हड़ताल पर जाने की इजाजत नहीं देता।

यदि डॉक्टरों की हड़ताल के चलते कहीं भी किसी मरीज की जान चली जाती है तो इसके लिए डॉक्टर ही जवाबदेह माने जाएंगे। वास्तव में जितना जरूरी यह है कि हड़ताल पर गए डॉक्टर अपने काम पर लौटें उतना ही यह भी कि पश्चिम बंगाल सरकार समेत अन्य राज्य सरकारें तीमारदारों के हमलों से उन्हें बचाने के पुख्ता उपाय करें। वे इस तथ्य से अनजान नहीं हो सकतीं कि रह-रहकर वैसी घटनाएं होती ही रहती है जैसी कोलकाता में हुई।

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