मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भाजपा नेता इमरती देवी को लेकर बेतुकी टिप्पणी करके केवल राजनीति में ओछी भाषा के सवाल को फिर से सतह पर लाने का ही काम नहीं किया, बल्कि यह भी प्रकट किया कि सार्वजनिक जीवन में सक्रिय महिलाओं को किस तरह कदम-कदम पर अपमान का सामना करना पड़ता है। इमरती देवी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी पर कमलनाथ की सफाई स्वीकार नहीं की जा सकती। एक ओर वह यह कह रहे हैं कि उन्हें उनका नाम याद नहीं आ रहा था और दूसरी ओर यह भी सफाई पेश कर रहे कि उन्होंने उनके लिए जो कुछ कहा, वह तो संसदीय शब्द है।

यदि ऐसा है तो क्या वह इस आधार पर इसी शब्द का इस्तेमाल कांग्रेस की महिला नेताओं के लिए करने की अनुमति प्रदान करेंगे कि उसका उपयोग तो संसद और विधानसभाओं में भी होता है? हो सकता है कि कमलनाथ इसके बाद भी इमरती देवी का नाम भूल गए हों कि कुछ समय पहले तक वह उनकी मंत्रीपरिषद की सदस्य थीं, लेकिन क्या इस सूरत में उन्हें कुछ भी बोल देंगे? कमलनाथ गलती मानने के बजाय बहाने बनाकर उन संजय राउत की याद दिला रहे हैं जिन्होंने कुछ समय पहले अभिनेत्री कंगना रनोट के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करके अपनी और साथ ही शिवसेना की फजीहत कराई थी।

चूंकि इमरती देवी दलित समुदाय से आती हैं इसलिए स्वाभाविक रूप से कमलनाथ की बेजा टिप्पणी दलित महिला के अपमान का मसला बन गई है, लेकिन यदि वह किसी अन्य समुदाय की होतीं तो भी उनके खिलाफ ओछी बात निंदा का विषय होती। नारी सम्मान के सवाल को दलित-गैर दलित के खांचे में बांटने से बचा जाना चाहिए। किसी भी स्त्री का अपमान सहन नहीं किया जाना चाहिए, वह चाहे जिस समुदाय से हो। मुश्किल यह है कि इधर एक नया चलन यह बन गया है कि किसी के साथ अन्याय पर यह देखा जाता है कि वह किस जाति, समुदाय से है और फिर उसी आधार पर विरोध और आपत्तियां दर्ज कराई जाती हैं।

विरोध और आपत्तियों का एक आधार यह भी बनने लगा है कि अन्याय करने वाला किस जाति, समुदाय का है। आखिर हर किसी के प्रति होने वाले अन्याय-अत्याचार के विरोध की नीति पर चलने में क्या कठिनाई है? क्या यह कि उससे राजनीतिक हित कुछ कम सधते हैं? पीड़ित और पीड़ा पहुंचाने वाले की जाति, समुदाय देखकर आक्रोश-आपत्ति जताने का सिलसिला कितना विकृत रूप ले चुका है, इसका एक उदाहरण है हाथरस कांड। यह देखना बेहद दयनीय था कि हाथरस कांड पर आंसू बहाने वाले इसी तरह की अन्य घटनाओं पर एक शब्द भी कहने को तैयार नहीं थे।