सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के महत्वपूर्ण फैसलों का हिंदू अनुवाद सर्वसुलभ कराने के लिए सर्च इंजन और एक एप बनाने की प्रक्रिया शुरू होना स्वागत योग्य तो है, लेकिन इसका सीमित महत्व ही है। यदि यह सुविधा उपलब्ध होती है, तो उसका लाभ मुख्यत: विधि के छात्रों, कानून के जानकारों और अन्य पेशेवरों को ही मिलेगा। नि:संदेह इससे वे लाभान्वित होंगे, लेकिन आज आवश्यकता यह है कि आम जनता को उसकी भाषा में न्याय उपलब्ध हो।

हाल में दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में इसकी आवश्यकता पर बल तो दिया गया, लेकिन इसके प्रबल आसार नहीं दिखते कि इस दिशा में कुछ ठोस हो सकेगा। इसका एक बड़ा कारण तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ओर से भी यह कहना है कि इसमें कुछ व्यावहारिक समस्याएं हैं। हालांकि उन्होंने स्थानीय भाषा में न्याय की जरूरत पर भी बल दिया, लेकिन इसी के साथ जिस तरह व्यावहारिक समस्याओं को रेखांकित किया गया उससे यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि इस दिशा में आगे बढ़ना संभव हो पाएगा या नहीं?

यदि न्यायपालिका के स्तर पर इसमें रुचि नहीं दिखाई जाती कि उच्चतर न्यायालयों के स्तर पर लोगों को उनकी भाषा में न्याय मिले तो फिर यह आकांक्षा कभी पूरी होने वाली नहीं है। इस मामले में न्यायपालिका के साथ ही सरकार को भी रुचि लेनी होगी और यह देखना होगा कि किसी न किसी स्तर पर एक शुरुआत हो। कम से कम लोक महत्व के मामलों में तो फैसले जनता की भाषा में ही देने का कोई उपक्रम होना चाहिए। यदि दुनिया के अन्य कई देशों में ऐसा हो सकता है तो फिर भारत में क्यों नहीं हो सकता?

इस प्रश्न के उत्तर में यदि कुछ आड़े आ रहा है, तो वह है इच्छाशक्ति की कमी। यदि न्यायपालिका और कार्यपालिका अपेक्षित इच्छाशक्ति का परिचय दे तो उन व्यावहारिक समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सकता है जो स्थानीय भाषा में न्याय उपलब्ध कराने में बाधक बनी हुई हैं। इच्छाशक्ति का परिचय केवल लोगों को उनकी भाषा में न्याय उपलब्ध कराने में ही देने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी ही आवश्यकता समय पर न्याय उपलब्ध कराने के मामले में भी है। यह ठीक नहीं कि निचली अदालतों से लेकर उच्चतर न्यायालयों में लंबित मुकदमों का बोझ बढ़ता ही चला जा रहा है।

यह सही है कि इस बोझ को कम करने के लिए न्यायिक तंत्र को सक्षम बनाने की जरूरत है, लेकिन इसके साथ ही इस तंत्र की खामियों को दूर करने की भी जरूरत है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इन खामियों के कारण ही छोटे-छोटे मामलों में तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम हो गया है।