जेएनयू में हिंसा को लेकर तर्क-कुतर्क भरी बहस के बीच कुलपति एम जगदीश कुमार विश्वविद्यालय का माहौल सामान्य बनाने के लिए कदम उठा रहे हैैं। ये कदम उठाने के साथ ही उन्होंने आंदोलनकारी छात्रों के समर्थन में सामने आए लोगों से यह सवाल भी पूछा है कि क्या वे उन छात्रों और शिक्षकों के साथ भी खड़े होने को तैयार हैैं जो पठन-पाठन से वंचित हैैं? इस सवाल पर जवाब की अपेक्षा उनसे कतई नहीं की जा सकती जिन्होंने आंदोलनकारी छात्रों के उपद्रव पर मौन रहना उचित समझा। शायद इसी कारण आंदोलनकारी छात्रों का दुस्साहस इस हद तक बढ़ा कि उन्होंने नए छात्रों के रजिस्ट्रेशन को तो बलपूर्वक रोका ही, सर्वर रूम को भी क्षतिग्रस्त किया।

आखिर कोई सभ्य-समझदार व्यक्ति या संगठन ऐसे छात्रों के साथ कैसे खड़े हो सकता है जो बाहुबल का सहारा लेकर शिक्षकों को उनकी कक्षाओं में प्रवेश ही न करने दे? दुर्भाग्य से सरकार और साथ ही कुलपति से चिढ़े विपक्षी दलों और साथ ही वामपंथी बुद्धिजीवियों ने ऐसा ही किया। वामपंथी दलों और बुद्धिजीवियों को जगदीश कुमार तभी से खटक रहे हैैं जबसे वह जेएनयू के कुलपति बने हैैं। उन्हें लगता है कि इस विश्वविद्यालय में कुलपति हों या शिक्षक अथवा छात्र, वे सब उनकी विचारधारा के ध्वजवाहक ही होने चाहिए। यह आकांक्षा किस तरह एक सनक और नफरत में तब्दील हो चुकी है, इसका प्रमाण छात्र संघ की अध्यक्ष की ओर से उन शिक्षकों को सार्वजनिक रूप से संघी प्रोफेसर बताया जाना है जो पठन-पाठन के लिए सक्रिय थे।

जेएनयू की समस्या केवल यह नहीं है कि वहां वामपंथी विचारधारा वाले शिक्षकों और छात्रों का वर्चस्व है, बल्कि यह है कि उन्हें अन्य किसी विचारधारा वाले स्वीकार्य नहीं। यह अतिवाद के अलावा और कुछ नहीं कि किसी शैक्षिक परिसर में भिन्न विचारधारा वालों को अपने से हीन और यहां तक कि शत्रु समान समझा जाए। जेएनयू जब तक ऐसी असहिष्णु विचारधारा से जकड़ा रहेगा तब तक वहां पठन-पाठन के लिए उपयुक्त माहौल कायम हो पाना मुश्किल ही है।

बेहतर हो कि कुलपति और साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय जेएनयू की इस मूल समस्या की तह तक जाए। इसी के साथ दिल्ली पुलिस को भी यह देखना होगा कि वह अपना काम सही तरह से क्यों नहीं कर सकी? आखिर उसने गुहार लगाए जाने के बाद भी उसी समय हस्तक्षेप क्यों नहीं किया जब रजिस्ट्रेशन कराने गए छात्रों को पीटने के साथ-साथ वहां के तकनीकी सिस्टम को ध्वस्त किया जा रहा था? नि:संदेह सवाल यह भी है कि वह उन नकाबधारियों को बेनकाब क्यों नहीं कर पा रही जिन्होंने विश्वविद्यालय परिसर में जाकर उत्पात मचाया? इन सवालों का जवाब जरूरी है।